मेरा हृदय खुली पुस्तक है
मेरा हृदय खुली पुस्तक है
पर इसमें कुछ लिखा नहीं है
लिखा वही खोजता कि जिसने
स्वाद प्रेम का चखा नहीं है
जिसने जाना स्वाद प्रेम का
वह न कभी पुस्तक पढ़ता है
वह जीता है प्रेम अहर्निश
वह ढाई आखर गढ़ता है
कहीं किसी पुस्तक में उसको
ढाई आखर दिखा नहीं है
स्वाद प्रेम का पा सकता है
कोई दीवाना बनकर ही
है पहचान यही वह हॅंसकर
फूॅंक दिया करता है घर ही
शीश उतार समर्पित करता
टिकती शिर पर शिखा नहीं है
प्रेम पनपते देखा तब ही
नयन नयन से जब मिल जाते
नयन चार होते ही दो दिल
मिलनातुर होकर खिल जाते
स्वाद प्रेम का वह क्या जाने
बिना मोल जो बिका नहीं है
महेश चन्द्र त्रिपाठी