“मेरा साथी”
सारी दुनियां भूल जाऊं,
ऐसी दुनियां सजा सके।
आए कोई ऐसा, जो
मेरे सिर आंखों छा सके।
मेरे ख्यालों से मिलते नहीं,
फरिश्ते, राजकुमार कोई।
मैं चाहूं एक आम सा साथी,
जो जीना मुझे सीखा सके।
ज़िद- ज़रब और गुस्सा तोड़,
दिमाग पे काबू पा सके।
पर बड़ी नरमी से जो,
दिल पे हुकुम चला सके।
हो कर खुद से मेरा,
मुझे अपना बना सके।
मैं चाहूं एक आम सा साथी,
जो जीना मुझे सीखा सके।
साथ रहे हर सुख दुख में,
अकेलेपन को मिटा सके।
समझे मेरी हर चुप्पी भी,
और चीखों को भी दबा सके।
जान लुटाने की बातें छोड़,
जिंदगी वापिस लौटा सके।
मैं चाहूं एक आम सा साथी,
जो जीना मुझे सीखा सके।
खुली किताब हो जाऊं मैं
वो आखिरी पन्ने छिपा सके
मुझ में हमेशा मैं देखे
मुझको कभी न भुला सके।
बसे रोम – रोम में मेरे जो ,
मुकम्मल मुझे बना सके।
मैं चाहूं एक आम सा साथी,
जो जीना मुझे सीखा सके।
ओसमणी साहू “ओश” रायपुर छत्तीसगढ़