मेरा शहर कानपुर – कुछ यादों की पंखुड़ियाँ। 01
मेरा शहर कानपुर – कुछ यादों की पंखुड़ियाँ। 01
बहुत मिस करता हूँ ओ मेरे शहर कानपुर
बहुत सुकून पाता हूँ
तेरे करीब आकर
वो गलियां, वो सड़कें, वो पत्थर कालेज
वो एलन फारेस्ट* की झील
जहां गुज़ारी थीं हमने
अपने दोस्तों संग
बचपन के दिनों की सुन्दर शामें
तब वहाँ जंगल ही जंगल था चारों ओर
और थी वो प्यारी से मनमोहक झील
शहर के शोर और कोलाहल से दूर बहुत दूर
और बरसात के दिनों में गंगा आ जाती थीं
पास वहाँ।
रोज ही बिताते थे हम सब घंटों अपनी शाम वहाँ
कमल के फूलों को कभी तोड़ते हुए
और कभी बनती थी हम सब की चाय वहाँ।
फिर वो गंगा की बालू वाली नाव को
रोज शाम डूबते सूरज की किरणों के बीच खेना
नारायण घाट से जगेस्वर मंदिर तक
पतवार या डंडे से खेकर ले जाना
और चाँद के सरकंडों के बीच से निकालने पर
मंदिर के दर्शन कर लौट कर आना
क्या नज़ारा होता था जब सफ़ेद बालू और
सफ़ेद सरकंडे के सफ़ेद फूलों के लहलाते पंखों पर
बिछी चांदी सी छिटकी चाँदनी को देख कर
जब हम कुछ अजीब से
ख़यालों में खो जाते थे
और याद आता है अक्सर
उस पतली सी बरसाती
नदिया की धीमें बहती धारा में
नाव को रोक कर
कुछ देर बालू पर लेट जाना.
और उस स्वर्गीय सुहानी नीरवता में
कुछ गीत गुनगुनाना या हँसना-हँसाना
फिर अचानक याद आने पर
कि नाव को तो किराये पर लिए
देर ज्यादा हो गई है
और पैसे ज्यादा देने पड़ेंगे
उस सुहाने से मंजर की यादों को
दिल में बसाये हम लौट पड़ते थे
मिल बाँट कर कुछ पैसे चुकाने
और ये सोचते कि आएंगे फिर भी किसी दिन
जब हो जाएँगे कुछ और रुपया या आनें
सभी के पास
मिल को देने को। ……..अगला भाग आगे फिर
Ravindra K Kapoor
6th Sept 2017
• अब वहाँ पर चिड़ियाघर है और वो झील भी अब वो
हरी भरी झील नहीं रही और तब भी हम सब आज़ाद नगर में
ही रहते थे।