मेरा शहर कहीं ग़ुम हो गया है
तपाक से गले से लगने वाले
अब तो नज़रें भी ख़ौफ़ से मिलाते हैं
इस ख़ौफ़ के सन्नाटे में –
मेरा शहर कहीं ग़ुम हो गया है
बदलते वख़्त के मिज़ाज़ के साथ
वतन से बहुत दूर
बसेरा हो तो जाता है
पर जड़ों में की घर की याद
और सोच में मिट्टी की महक बाकी है
यही वो एहसास है की”ज़िंदा हूँ”
ना ही वो बचपन भूलता है –
ना ही बिताये पल
बस अब फ़ोन ही समेटती है
कुछ पुरानी बिखरती यादों को
कल जब भाई ने कहा
ये कैसी महामारी – ये कैसा कहर है
अमीर तो चले गए
पहाड़ियों में बसर करने
दिहाड़ियों की जिंदगी का
ठौर ना जाने कहाँ टिके
ये सोच के ही अंदर कुछ मर सा जाता है
कल जब भाई ने कहा
आजकल मोटर गाड़ियों का शोर
या रिक्शेवाले की घंटी
सड़कों पर सुनाई नहीं देती
अब मोहल्ले के घरों में
कोई डाकिये की राह नहीं देखता
कोई पड़ोसियों के घर जा
चीनी उधार नहीं लेता
तपाक से गले से लगने वाले
अब तो नज़रें भी ख़ौफ़ से मिलाते हैं
सब्जी वालों की रेडियां
सड़क के कोने पर
यूँ ही बेकार पड़ी हैं
खाई से भी गहरी – आंखों में उनकी
भूख से ज़्यादा – दर्द दिखता है
और वो सुकून , इस रोग के सन्नाटे में
वो अपना घर – अपने लोग
अपना पुराना शहर , ना जाने कहाँ गुम हो गया है