मेरा वजूद क्या
” मेरा वजूद क्या है ?”
बचपन में मैं मां मांकी गोद में पलकर ,
बिन चाहत के उतरा खिलौनो को देखकर
अपनो के लाड़ में पलकर ,
आदत से ख्वाहिशों को जोड़कर
ख्वाहिशों की पुर्ति में रहकर
लालच से मजबूर होकर चला
मै खुद को षड्यन्य में जोड़कर
बचपन की बचकानी हरकत परे रही
पचपन की जवानी चाहकर ढलती रही
काले कारनामो का पता नही
काले केश इस मजबुर की मजबुरी से खता कही
उगते सुरज कोओरो की क्या मै खुद भी प्रणाम करता हूँ
अस्त हुआ इस फिजा में बदनसीब को आखरी सलाम करता हूँ
कालीमा बालो की सुन्दरता संग दफा हुयी
दांतो की तरुणाई बुढापे से खफा हुयी
झर-झर करते इस बदन में हिम्मत ने भी रस्ता देखा
ज्ञान, दिप को बुझाकर मृगनयनी झुथि ख्वाहिशों पर फिदा हुयी
आधुनिकता के शोर में, मैं मुसाफिर अपना वजूद खोज रहा
मन के प्रकोप से उठे ख्यालो में खुद अपना सवाल खोज रहा
जीवन पथ पर यह चलने में विरान बन
इस मन की निस्कर्मणता का प्रमाण है।
बैठ अकेला सोच रहा आखिरकार मेरा जन्म का लक्ष्य क्या ?
काम-काज आज यूं खफा हुए बदनसीबी की आज रजा हुयी
नालायकी के शोर में मां-बाप की चिन्ता का ढेर हुआ
तानो के नीरज से इस बदनसीबी को जकड़ता हूँ
दिमागी छुछुंदर से मतिभ्रम को पकड़ता हूँ
अकेले इस संसार में सुझ ले एकांकी का वजूद खोजकर
खुद के मन से पूछता हूं आख़िरकार मेरा वजूद क्या है