मेरा मन क्यूँ मचलता है…
मेरा मन,
क्यूँ मचलता है,
कभी बनकर ये कोयल,
भोर में,
कुह-कुह करता है ।
हवा के मानिंद,
ये चलता है,
क़भी उड़ जाए,
आसमाँ में,
फ़िर,
बन पपीहा बाग़ का,
पिहू-पिहू ये करता है ।
ऋतु जब,
सावन की आये,
मन झूमे,
मदमस्त होकर,
टपकने को,
बूँदों की तरह,
मचलता है मिलने को,
तेज़ बहते,
दरिया में बिन सहारे,
तिनके की तरह ।
बसन्त के सुआ की तरह,
यूँ उड़ चलता है,
बाग़ के सपनों में,
फ़िर घुमड़कर,
लौटता है,
बिन बरसे,
बादल की तरह ।
इतना क्यूँ बैचेन है,
ये बिन तेल,
जलते दिए की तरह,
मेरा मन क्यों,
मचलता है,
एक प्यासे पपीहे की तरह ।
#आर एस आघात