मेरा मकान , मेरा प्यार
” अब मैं क्या करूँगा , कैसे समय गुजारूँगा ? आफिस में तो काम करते चार लोगों से बात करते समय का पता ही
नही चलता ।”
रामलाल जी आज अपनी उम्र के 60 साल पूरे करते हुए सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो रहे थे । उन्होंने अपनी नौकरी ईमानदारी और मेहनत से की थी । इसीलिए सब उनकी इज्जत करते थे । उन्होंने अपने संबोधन भी यहीं बाते कहीं थी ।
एक हाथ में गैदे के फूल की माला लिए उन्होंने
घर में प्रवेश किया ।
पत्नी रमा तो खुश थी कि अब रामलाल के साथ समय गुजरेंगा , नहीं तो जिन्दगी भागदौड़ में ही गुजरी थी ।
बहुऐं नाक- भौ सिकोड़ रही थी अभी तक सास की ही टोका-टोकी थी अब ससुर को भी
दिनभर झेलो । साथ ही उन्होंने अपने बच्चों की भी सास- ससुर से दूरियां बनावा दी थी , कि वह दादा दादी के प्यार में बिगड़ नहीं जाए ।
खैर , रामलाल इन सब बातों से दूर थे, शुरू में आफिस चले जाते थे और बिना किसी लालच के अपनी सीट का काम करते थे जो ज्यादा दिन नहीं चल सका कयोकि जिसको सीट दी थी वह अपने हिसाब से कमाई करते हुए काम करना चाहता था । इसलिए उन्होने आफिस जाना छोड़ दिया ।
एक दिन रामलाल बाजार से लौट रहे थे , तभी उन्हें अपने मकान की बाउन्डरी की दीवार में दरार दिखी जो बढती जा रही थी और कभी भी वह
गिर सकती थी ।
इसलिए रामलाल ने ठेकेदार को बुला कर काम चालू करवा दिया अब मजदूर और उनके बच्चों के साथ बात करते , चाय – पानी पिलाते रामलाल का
समय अच्छा गुजरने लगा ।
जब यह काम खत्म हुआ तो फिर उन्हें
खालीपन लगने लगा । रामलाल को
सेवानिवृत्ति पर पैसा तो मिला ही था अब उन्होंने मकान की खाली जगह और ऊपर की मंजिल का काम शुरू करवा दिया ।
रामलाल अपने मकान की बेटे की तरह देखभाल करते और ध्यान देने लगे ।
इस तरह कैसे उनका समय गुजर रहा मालूम ही पड रहा था । साथ ही उन्होंने मकाने के अतिरिक्त हिस्से को जरूरतमंद को किराये पर दे दिया और उसका उपयोग सम्पति कर और टेक्स के भुगतान में करने लगे साथ ही किरायेदार के बच्चों के साथ खेलते और उन लोगों से बातचीत, मेल-मुलाक़ात से अच्छा समय गुजरने लगा उनके इस काम में रमा
भी साथ देने लगी ।
जहाँ चाह वहाँ राह के चलते रामलाल जी सेवानिवृत्ति के बाद भी अपने आप को व्यस्त रखने लगे और अच्छा समय गुजारने लगा । उनका मकान भी जो पहले उपेक्षित सा था अब बन-संवर कर
शान से खड़ा था ।
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल