मेरा बचपन मेरी यादें
बैठ घनी अमराई में, अमियां खाते बचपन में।
रोज शाम को मैदानो में,पतंग उड़ाते बचपन में।।
पानी में पैरों को डालें, पत्थर फेका करते थे।
भरी दुपहरिया गली गली में,चका चलाया करते थे।
मीठी बैरें खट्टी इमली, रोज ही खाया करते थे।
बैठ रेत में उंगली से हम,चित्र बनाया करते थे।।
मित्रों के संग रोज सबेरे, नदी नहाते बचपन में। बैठ घनी,,,,
सच कहना चोरी की ककड़ी, तुमने भी तो खाई होगी।
आता जब उलाहना घर तो, मार छड़ी से खाई होगी।।
सच कहना की वही स्वाद है, जो था मां की रोटी में।
सच कहना की वही नीद है, जो थी मां की लोरी में।।
मां का लाड़ पिता की डांटे, रोज ही खाते बचपन में। बैठ घनी
कलम स्लेट और एक पहाड़ा, लेकर पड़ने जाते थे।
लेकर लंबी छड़ी हाथ में ,गुरु जी हमें पढ़ाते थे ।।
अ अनार से ज्ञ ज्ञानी तक, मां हमें रोज सिखाती थी।
जो कर लेते सबक याद तो, खाना खूब खिलाती थी।।
छड़ी तमाचे रोज लगाते, गुरु जी हमको बचपन में। बैठ घनी..
फटे पूराने कपड़ों में ही, राज महल सज जाते थे।
कभी खेलते चोर सिपाही, सैनिक बन तन जाते थे।।
जो सुकून और बेफिक्री थी, तब की हमें गरीबी में।
अब कहां वो मजा रखा है, मोबाइल और टी बी में।।
क्या भूलें क्या याद रखें, क्या क्या करते बचपन में।
बैठ घनी अमराई में, अमियां खाते बचपन में।।
उमेश मेहरा
गाडरवारा ( एम पी)
9479611151