मेरा दर्पण
गुण गायेगी मेरे दुनिया, लेकिन तुम कमियाँ भी कहना।
मेरे मन में रहने वाले, मेरा दर्पण बनकर रहना।।
जब भी कभी सफलताओं के,
मद में आत्ममुग्ध हो जाऊँ।
जब भी कभी हार के भय से,
जलकर स्वयं दग्ध हो जाऊँ।
तब तुम मेरा हाथ थामकर, सम्मुख नई चुनौती रखना।
मेरे मन में रहने वाले, मेरा दर्पण बनकर रहना।।
मैं आँगन की देहरी बनकर,
पितरों का सत्कार करूँगी।
हवन, साधना, शुभ कर्मों में,
समिधा बनकर साथ रहूँगी।
बस तुम घृत बनकर पग पग पर, मेरा तेज बढ़ाते रहना।
मेरे मन में रहने वाले, मेरा दर्पण बनकर रहना।।
जब जीवन की सांध्य घड़ी में,
मैं सूरज सी ढलती होऊँ।
हाथों में स्मृतियाँ देकर,
नए मार्ग पर बढ़ती होऊँ।
तब अगले सातों जन्मों तक, साथ रहोगे वादा करना।
मेरे मन में रहने वाले, मेरा दर्पण बनकर रहना।।
©शिवा अवस्थी