मेरा गुरु
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मेरी चेतना
जब कण से बना पर्वत
तब
पर्वत पिघलकर बना मेरा गुरु।
मैं हुआ शुरू।
सूरज के प्रकाश में भागना है
और कि कैसा और क्या होता है भूख।
भूख के इन्द्रधनुष में
सीख लिया खोजना
खुद को पूज,अपने प्रसाद का रंग।
रात गहरी खाई है
दिन पर्वत सा दैत्याकार।
पर्वत पर चढ़ने का हुनर,खाई में लटक।
जंगल में समृद्धि था
मैं वहीं अभिव्यक्त था।
मेरा जीवन वहीं मेरे जितना सख्त था।
अंधकार ने मुझे लिखा
दिन ने सूरज के चौंध भरी रौशनी में भी पढ़ा।
मैं निर्मित हुआ
जिस दूध से व जिस रक्त-विन्दु से
वहाँ भ्रम है।
मेरे जीवन के सर्वस्व होने के आभास का
यह तो मात्र क्रम है।
शिला पर पटके जाने के भय से
विचलित नहीं हुआ मैं।
पटकने वाले कर के स्पर्श का स्वाद
समझकर
गर्वित तो यहीं हुआ मैं।
तब मृत्यु ने मुझे जिया
जीवन ने ब्रह्म-लेख में मुझे तलाशा।
व्योम था मेरा मन
कोरा स्याह मेरा गगन
जो अक्षर गये सिखाये
और अंक बताये
उसने गुरु का भर दिया अहंकार।
कहाँ था मैं उसमें !
तेरा कहा नहीं। मेरा कर्म।
कहे की कसौटी से उगा
मेरा विवेक और विचार का मर्म।
मैं अपना गुरु होकर भी
कर न सका कोई शिक्षा शुरू।
जीने के जद्दोजहद में
खोता रहा दीक्षा का हर परु। (पर्वत,समुद्र)
मेरा गुरु-
जीवन तिलस्म है
जादूगरी का रस्म है।
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