मेरा गांव
तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है,
और तू मेरे गांव को गँवार कहता है ।
ऐ शहर मुझे तेरी औक़ात पता है,
तू बच्ची को भी हुस्न – ए – बहार कहता है।
थक गया है हर शख़्स काम करते करते ,
तू इसे अमीरी का बाज़ार कहता है।
गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फुरसत तेरा इतवार कहता है ।
मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं ,
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है ।
जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा,
तू उन माँ बाप को अब भार कहता है ।
वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है ।
बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें,
तु अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है।
बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाडी में,
पूरा परिवार भी न बैठ पाये उसे तू कार कहता है।
अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को संस्कार कहता है ।
अनिल “आदर्श”
कोचस, रोहतास, बिहार