मेरा गाँव और वो
मेरा गाँव और वो
भोले से गाँव की भोली सी अल्हड़ छोरी
ताल तलैया किनारे नैनों की जोरा जोरी
मधुर चूड़ियों की खनक पायल की छनक
ज्यूँ अमुआ की डाल पर कोयल की बोरी
साक्षी प्रीत के कुएँ पास वो पीपल का पेड़
लहलहाती गेहूँ की बाली और खेतों की मेड़
गर्म साँसों में घुलती मिट्टी की सौंधी महक
ठंडी पुरवाई मचलाती दिल के तारों को छेड़
भोर अम्बर और आनन पर किरणें चटकाई
कच्चे आँगन की टूटी खटिया पर अंगड़ाई
चूल्हे की आँच पर पकती प्रणय की साँझ
चाँदनी रात में लालटेन ले वो छत पर आई
आज भी वो छत पर कर रही मेरा इंतेज़ार
संस्कारों की लक्ष्मण रेखा से बंधा है प्यार
चुभती पगडंडियों से उड़ती यादों की धूल
छोड़ आया मझधार मेरे अतीत का आधार
सपनों के पीछे भागता लुटता चला गया
प्रियतम मेरा गाँव में छूटता चला गया
अपनी ही लाश काँधे पे उठाए फिरता हूँ
रूह रह गयी गाँव में शरीर शहर चला गया
रेखा ड्रोलिया
कोलकाता