मेरा खिलौना
दिया था एक दिन बाबा ने मेरे मुझको एक खिलौना,
पा कर उसको ख़ुशी से झूम उठा मन का हर कोना।
था उसका मासूम सा चेहरा, थी उसकी मासूम हंसी,
मिठी सी बोली थी उसकी पर आंखों में लगती थी नमी।
बन बैठा वो मेरी जान,मिलके लगा पुरे हो गए अरमान,
दिखता था शहजादा जैसा, साथ उसके मिल जाती खुशियां तमाम।
संग मेरे वो मैं संग उसके, रहते थे साथ हरदम हरपल,
ना वो मुझसे ना मैं उससे, होते थे दुर कभी भी एक क्षण।
एकदम से एक दिन हवा का एक झोंका ऐसा आया,
संग अपने मुझको मेरे गुड्डे से दूर कहीं कर आया।
आती मुझको मेरे गुड्डे की हरपल हरदम याद,
हर एक पल उसकी यादों से दिल का कोना रहा आबाद।
आई थी कुछ सालों बाद लौटी मैं जब घर को,
हर किसी को छोड़ दौड़ी ढुंढी ब्याकुल अपने गुड्डे को।
एकदम से ठिठके मेरे पांव जमीं पर मानो थम गये,
था मेरा गुड्डा किसी और के हाथों में, आंसू पलकों पे थम गये।
भूल बैठा था गुड्डा मेरा,पाकर किसी दूसरे का साथ,
पर, मैंने कोई और खिलौना लिया नहीं हाथों में उसके बाद।
अपने गुड्डे को देखा मैंने जबसे ,किसी दूसरे के पास,
फिर मैंने कभी मुड़ कर नहीं देखा , छोड़ दी मैंने उसकी आस।
क्या करूं कि मैं मुझको कुदरत ने है ऐसा हीं बनाया,
मेरी चीजें कोई छुले उसे फिर मैंने नहीं हाथ लगाया।
पर,सच तो है ये की उस खिलौने में बसती थी मेरी जान,
ले गया उसको कोई और ले गया मेरी खुशियां तमाम।
था वो गुड्डा मेरे लिए सबसे बढ़कर सबसे अनमोल,
सब कुछ छोड़ा मैंने उसकी खातिर, मेरे लिए नहीं था उसका कोई मोल।
उसके जाने के बाद चला गया फिर बचपन मेरा,
एकदम से हो गई समझदार, वक्त ने किया था ऐसा फेरा।
उस गुड्डे के बाद फिर मैंने कोई दोस्त नहीं बनाया,
कर ली क़लम से दोस्ती और कागज को दोस्त बनाया।