मेरा क्या मुझमें बतलाना?
जो दिया तुम्हीं से था पाया..
कब खुदको ऊंचा दिखलाया..
कब तोड़ के डोरी “मर्यादा”
मन मेरा खुद पे भरमाया…
मैंने तो इन अवसादों से..
सीखा है गम में मुस्काना…
मेरा क्या मुझमें बतलाना??
इन भावों की माला को पिरो.
कब कहो मै खुद पे इठलाई.
मैंने तो अपनी पीड़ा की..
इसमें समझी थी भलीयाई
जग रीझ रहा जिनपे ..
उनको ही खीज गया मेरा आना
मेरा क्या मुझमें बतलाना??
छोड़ रही वह मंजिल …
जिसके लिए ये सदियों तरसी हैं…
दर्द में लेकिन गैरों के
आंखे मेरी भी बरसी है..
पीर पराई को मैने
जीवन का अपने सच जाना
मेरा क्या मुझमें बतलाना??