मेरा आंगन
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
कुरद कुरद कर मिट्टी खाता
लुढ़क- लुढ़क कर लोट लगाता
हँसी भर भर कर ताली बजाता
रात – दिन भर धूम मचाता
कभी रूठना कभी मान जाना
बचपन सुखद बनाता आंगन।
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
पिता ने उंगली पकड़ पकड़ कर
जहाँ मुझे चलना सिखाया
माँ ने सिर पर हाथ फेर कर
अपना सारा प्यार लुटाया
कोमल बचपन की उम्र में
पलकों में नींद सजाता आंगन
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
मैं घर में हूँ सबसे छोटा
सबका मनोरंजन में करता
और बदले परिवार जनों से
खूब दुलार और प्यार पाता
मेरी एक मुस्कान भर पर
अपना सर्वस्व लुटाता आंगन
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
जब कभी बीमार भी होता
सर्दी खाँसी या बुखार होता
आते जाते कहीं गिर जाता
या थोड़ी सी भी चोट पाता
मेरी छोटी सी पीड़ा में
मेरा दर्द बटाता आंगन
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
जब भी नया काम करता
उस पर मैं अभिमान करता
अपनी छोटी सी सफलता का
घर-भर में गुणगान करता
कर्म विजय पर तालकर
मेरा उत्साह बढ़ाता आंगन
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
प्रथम ज्ञान का पाठ पढ़ाता
सही गलत का भेद बताता
मेरे कोमल ह्रदय पटल पर
कोमल न्यारा भविष्य बूनता
कर्तव्य में प्रेम के मार्ग पर
मुझे अग्रसर करता आंगन।
मेरा आंगन प्यारा आंगन
प्रेम सुधा बरसाता आंगन।
– विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’