*मेघ गोरे हुए साँवरे* पुस्तक की समीक्षा धीरज श्रीवास्तव जी द्वारा
प्रेम व भक्ति की पुण्य सलिला में नहाये संवेदना के गीत
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‘गीत’ शब्द सम्मुख आते ही हृदय में संगीत दस्तक देने को आतुर हो उठता है। कवि की जब नैसर्गिक एवं तीव्र आत्मानुभूति कोमल व मोहक शब्दों का आवरण ओढ़कर भिन्न- भिन्न रागिनियों की पैंजनी बाँधकर हृदयाङ्गन में नृत्य कर उठती है तब अनायास ही गीत का जन्म हो जाता है ।
भारत में गीतों की सुदीर्घ परम्परा का प्रारम्भ वेदों से ही माना जाता है । आदिकाल से लेकर आज तक गीतों की यह परम्परा अक्षुण्ण रही है। मनुष्य इस प्रकृति का मोहक एवं एक महत्वपूर्ण अंग है। उसके अंतस में भी गीत, संगीत सुनने, गुनगुनाने और सृजन करने की ललक का होना अत्यन्त स्वाभाविक है। गीत आदिकाल से अपने नवीन एवं पुरातन सभी स्वरूपों में अब तक जीवन्त है और सदैव रहेगा भी! वह इसलिए कि इसका स्वरूप इसकी अंतरात्मा अत्यन्त शुद्ध एवं पावन है। अमरकोश में गीत को परिभाषित करते हुए गीत के छः लक्षण स्वीकार किये गए हैं “सुस्वरं सरसं चैव सरागं मधुराक्षरं,सालंकारं प्रमाणं च षडविधं गीतलक्षणं”। संगीत के अनुसार गीत में टेक,अंतरा और बंद होने चाहिए। देवेंद्र कुमार के अनुसार “छंदानुशासन से अलग गीत की संभावना हो ही नहीं सकती।” आचार्य ओम नीरव जी ने भी गीत की एक बहुत सुंदर एवं सांस्कृतिक परिभाषा दी है –“गीत किसी उद्दीपित भाव की एक मर्यादित अविरल धारा है, मुखड़ा जिसका उद्गम है, अंतरे जिसके मनोरम घाट हैं, पूरक पंक्तियाँ जिसके भँवर हैं और समापन जिसका अनंत सागर में विलयन है।” समकालीन गीतकोश में नचिकेता जी ने गीत के विषय में उचित टिप्पणी करते हुए लिखा है “अच्छी गीत रचना वही होती है जिसमें कवि अपनी भाषा में स्वयं को इस कदर विलीन कर देता है कि उसकी उपस्थिति का आभास तक नहीं होता और भाषा का अपना स्वर पूरी रचना में गूँजने लगता है।” ये विभिन्न गीत विश्लेषण इसलिए कि बहुतेरे लोगों के मन में गीत के प्रति भ्रांतियाँ अन्यानेक हैं।गीत विषयक नीरव जी एवं नचिकेता जी की टिप्पणियाँ इस संकलन की भूमिका में अधिक समीचीन प्रतीत होती हैं।
समय-समय पर गीत की अन्तर्धारा अवश्य बदलती रही है किन्तु गीत ने अपने मूल में प्राणों का स़ंचयन नहीं छोड़ा। वैसे तो गीत लोकगीत और समूहगान के रूप में बहुत पहले से ही जनजीवन में व्याप्त रहा है लेकिन हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘भारतेन्दु युग’ से ही गीत का जन्म हुआ माना जा सकता है। यही गीत भिन्न- भिन्न पड़ावों यथा छायावाद, रहस्यवाद,और प्रगतिवाद से होते हुए आधुनिक समय में कवयित्री डॉ. अर्चना गुप्ता जी तक आ पहुँचा है। डॉ. अर्चना गुप्ता जी उन संवेदनशील गीतकारों में से हैं जहाँ मानव हृदय की अनुभूतियाँ शिखरस्थ होकर अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति पाकर प्रेम व भक्ति के यथार्थ मूल्यों को दृढ़ता के साथ स्थापित करती हैं । डॉ. अर्चना गुप्ता जी के गीत, प्रेम व भक्ति की पुण्यसलिला में नहाते हुए गीत हैं । सहज और पवित्र नेह व भक्ति के यज्ञ में समर्पण की हवनसामग्री लेकर समिधा की प्रतिष्ठा करने वाले गीत हैं । प्रेम व भक्ति की विभिन्न अवस्थाओं की झाँकी प्रस्तुत करते गीत हैं । शाश्वत प्रेम व भक्ति की कोमलता एवं राष्ट्र की उत्सवधर्मिता तथा सामाजिक चेतना को परिभाषित करते संकलन में सम्मिलित सभी गीत हृदय को तृप्त करने में पूर्ण समर्थ दिखते हैं। हृदय में संवेदनाओं को जागृत कर आत्मानुभूति और लोकानुभूति की चरम सीमा तक पहुँचा सकने की सामर्थ्य रखने वाले इन्हीं गीतों का एक मोहक गुलदस्ता है ‘मेघ गोरे हुए साँवरे’। यह डॉ. अर्चना गुप्ता जी का प्रथम गीत संग्रह है । इस सुंदर संग्रह में 85 गीतों को संकलित किया गया है। डॉ.अर्चना गुप्ता जी प्रेमपरक व भक्तिपरक अनुभूतियों और अभिव्यंजनाओं के अभिव्यक्ति की सद्योपासिका और मर्मस्पृक संवेदनाओं की कोमल गीतकवयित्री हैं । समस्त गीतों का शाश्वत उद्देश्य सुंदर, सार्थक, पावन, प्रेरक तथा अपना पूर्ण प्रभाव छोड़ने में समर्थ है।
संकलन के शीर्षक गीत में गीतकार का प्रेम में भीगा कोमल हृदय मुखर होकर गा उठा है। :—
मेघ गोरे हुए साँवरे
देख थिरके मेरे पाँव रे
बह रही संदली सी पवन
आज बस में नहीं मेरा मन
मैं ग़ज़ल गीत गाने लगी
स्वप्न अनगिन सजाने लगी
कल्पनाओं में मैं खो गयी
याद आने लगे गाँव रे
देख थिरके मेरे पाँव रे
प्रणय की स्वाभाविक पिघलन का उत्कृष्टतम रूप प्रदर्शित करता यह गीत, गीतकार के सुकोमल मन को निदर्शित करने वाला है ।
संग्रह में सम्मिलित अन्य गीतों पर दृष्टिपात करते हैं तो सहज ही देख सकते हैं कि डॉ. अर्चना गुप्ता जी में बैठे गीतकार की कोमल आत्मा की पावन दार्शनिकता और अधिक विराट हो उठती है ।
प्रिय की पावन स्मृतियों में भावनाओं के पुष्प पिरोता मानव हृदय जब छटपटा उठता है तो वियोग और अकुलाहट से जन्मा गीत मुखर होकर आँसुओं में परिवर्तित हो उठता है :—
बह रहा है आँख से खारा समन्दर,
जिन्दगी कुछ इस तरह से रो रही है।
रात की खामोशियाँ हैं और हम हैं,
बात दिल की आँसुओं से हो रही है।
किन्तु गीतकार के हृदय में आशा का दीप भी प्रज्वलित है:—
प्यार से दुनिया हमारी भी खिलेगी
मुक्ति फिर इस दर्द से इक दिन मिलेगी
आस ऐसे बीज मन में बो रही है।
बात दिल की आँसुओं से हो रही है।
एक ओर तो डॉ.अर्चना गुप्ता जी मन की अनुभूतियों को प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से प्रकट करती हैं तो दूसरी ओर किशोरावस्था की स्मृतियों में जब मन जाकर कभी कसमसाता है ,कभी मुस्कुराता है, कभी आहें भरता है तो उनकी लेखनी अलग ही चल पड़ती है :—
अँधेरे घिर गये घनघोर काले मेघ जब छाये।
हुए हैं और भी गहरे तुम्हारी याद के साये।
डॉ.अर्चना गुप्ता जी मानव मन की सहज संवेदनाओं को उकेरने में सिद्धहस्त व कोमल गीतकार हैं । प्रेम में संवेदित मन जब मगन होकर झूमता है,बौराता है तो अनायास ही प्यारा सा गीत हृदय में प्रस्फुटित होकर होंठों से फूट पड़ता है:—
तुम हमारे हम तुम्हारे हो गये
तुम हमें हमसे भी प्यारे हो गये
खिल उठे हैं हम तुम्हारे प्यार से।
लग रहे हैं दिन सभी त्यौहार से,
गीत जैसे शब्द सारे हो गये।
तुम हमारे हम तुम्हारे हो गये।
जीवन में आये ह्रास से उपजी निराशा एवं दुश्वारियों आदि से उबरने और कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा देता यह प्राणवान गीत आशा,संतोष,साहस,और संकल्प आदि की महत्ता का सार्थक समर्थन एवं प्रेरित करने वाला है:—
पार्थ विकट हालात बहुत हैं,मगर सामना करना होगा।
अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनों से लड़ना होगा।
समझो जीवन एक समर है, मुख मत मोड़ो सच्चाई से
लड़ना होगा आज समर में,तुमको अपने हर भाई से
रिश्ते – नाते संगी- साथी आज भूलना होगा सबको
और धर्म का पालन करने, सत्य मार्ग को चुनना होगा।
अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनों से लड़ना होगा।
प्रेम को गहरे जाकर टटोलना और फिर उसे शिल्पबद्ध कर छांदस रूप देते हुए प्रेम की गाथा गाना कोई ऋजुवत सृजनधर्मी गीतकार ही कर सकता है, जिस पर डॉ.अर्चना गुप्ता जी पूर्णतय: खरी उतरी हैं।:—-
जब घिरी सावनी साँवली बदलियाँ।
प्रीत करने लगी कान में चुगलियाँ।
केश मुख पर बिखर कर,मचलने लगे
छू पवन तन-बदन भी सिहरने लगे
मन लुभाने लगी हैं चुहलबाजियाँ।
डॉ.अर्चना गुप्ता जी के गीतों में शिल्प और भावों का सुंदर सामंजस्य है ! साथ ही सुंदर एवं कोमल व सहज शब्दों का चयन भी । जो उनकी काव्य समर्थता को दर्शाता है। पिता के प्रति श्रद्धा, प्रेम,एवं आदर अभिनंदनीय है। :—
मेरे अंदर जो बहती है,उस नदिया की धार पिता।
भूल नहीं सकती जीवन भर, मेरा पहला प्यार पिता।
मेरे जीवन की उलझन को, हँसते-हँसते सुलझाया
और उन्होंने बढ़ा हौंसला,आगे बढ़ना सिखलाया
बनी इमारत जो मैं ऊँची,उसके हैं आधार पिता।
भूल नहीं सकती जीवन भर,मेरा पहला प्यार पिता।
मन के बाद उदार नेत्रों से प्रेम का आह्वान,देखने, समझने और उसकी महत्ता को सरलतम रूप म़ें गीतों के माध्यम से अभिव्यक्ति करने की कला डॉ.अर्चना गुप्ता से बेहतर और कौन करता ? :—–
साथ में पग हमारे मिलाकर चलो।
गीत गाने लगेगी यही जिन्दगी।
फिर रहेंगें न मौसम गमों के यहाँ,
मुस्कुराने लगेगी यही जिन्दगी।
डॉ.अर्चना गुप्ता जी के इस संकलन के समस्त गीतों की भाषा शैली सामान्य किन्तु पुष्ट है। सभी गीत स्वस्थ एवं जनकल्याणकारी हैं।गाँव-घर-आँगन में हो रही नेह की अठखेलियों को गीत की लय,गेयता,शिल्प के साथ अलंकारिक व सुंदरतम स्वरूप में नियोजित करने की कला कवयित्री को खूब आती है।उनके गीत प्रेम व भक्ति के ही गीत नहीं हैं उनमें राष्ट्र-प्रेम, सामाजिक चेतना के प्रेरणास्पद गीत भी हैं जो मन की शिथिलता, निराशा आदि को उर्जा में परिवर्तित कर थके -हारे को जीवन प्रदान करने वाले हैं। समस्त गीतों में प्रेम व भक्ति की सहज दार्शनिकता ही परिलक्षित होती है। गीतों में प्रयुक्त हिंदी छंदों का पूर्ण रूप से निर्वहन किया गया है।गीतों को पढ़ते हुए हम एक अद्भुत संगीत का भी अनुभव कर सकते हैं।नि:संदेह मानवीयता के प्रकल्पित प्रेम को बेहद सुंदर शैली में ढालने वाली गीतकार डॉ अर्चना गुप्ता जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही होगी । प्रेम व भक्ति के गहरे सागर में गोते लगाकर सुंदर गीतों के रूप में मोतियों को चुनना अभिनंदनीय है, प्रशंसनीय है और वंदनीय भी ।
मैं पूर्णतः आशान्वित हूँ कि निश्चित रूप से यह गीत संकलन सुधी पाठकों को तृप्त करेगा ।गीतकार को इस उत्कृष्ट प्रयास के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ।
—– धीरज श्रीवास्तव (गीतकार)
सचिव, साहित्य प्रोत्साहन संस्थान,
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