मेघों के साथ साथ मन भी
मेघों के साथ साथ मन भी
उड़ने से बाज नहीं आता
उड़ उड़ जन जन को जगा रहा
हर दिल की सांकल खटकाता
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दामिनि दिपदिप दिपदिप करती
रास्ता दिखाती जाती है
जो विरही हैं उनके उर को
पीड़ा असीम पहुंचाती है
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उड़ते मेघों पर मेघ आज
वसुधा को जलमय करने को
पावसी छटा का रंग आज
सबके अंतस मे भरने को
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अलमस्त पवन नर्तन करती
रोमावलि को सिहराती है
कल्पना तुम्हें पा जाने की
काया में आग लगाती है ।।
********************* – महेश चन्द्र त्रिपाठी