मेघा जल बरसा दे
सार छन्द (16-12) में रचित
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तपी धरा है,आज बहुत ही,
मन इसका बहला दे।
लगन लगी ह,खूब भींगन की,
मेघा जल बरसा दे।।
बागन में झूले पड़ जाये,
मन सबका हरसा दे।
पपीहा कोयल कक्की चहके,
कलरव आज हँसा दे।।
धरा ध्यान से देख रही है,
उमड़ घुमड़ की छैयां।
आज मिलन से,ही उड़ जाये,
सोंधी खुशबू भैया।।
छेड़ो न देखो तुम चपला,
अचला हो हरियाली।
मिलन प्रतीक का सतरंगी,
देगा अब खुशहाली।
दादुर झींगुर, कूद रहे हैं,
कब आएगा पानी?
जलधर से मिलकर अदिति,
करेगी चूनर धानी।।
धूल जमीं है जड़ चेतन पर,
दे दो ज्ञान का पानी।
मानव मानवता समझे अब,
सुखमय होय जवानी।।
आके रिमझिम बूंदों से अब,
भू को तू हरसा दे।
लगन लगी ह खूब भींगन की,
मेघा जल बरसा दे।।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
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