मेघनाद ब्रम्हास्त्र कथा ( रोला छंद )
ब्रम्ह अस्त्र तेहि साँधा,
कपि मन कीन्ह विचार।।
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मेघनाद ब्रह्मास्त्र कथा
(प्रथम किस्त)
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रोला छंद 11/13
तरह तरह के शस्त्र, चलाये इन्द्रजीत ने ।
नहीं सफलता मिली,समय यों गया बीतने ।
चले न कोई वार,गये खाली कपि आगे।
मेघनाद के लगे, टूटने साहस धागे ।
उसने सोचा पड़ा, महायोधा से पाला।
सब शस्त्रों को छोड़,तभी ब्रह्मास्त्र निकाला ।
मेघनाद के हाथ,देख कपि बात बिचारी ।
ब्रह्मा की मरयाद,आज मिट जाये सारी ।
गई नजर में झूल, अचानक कथा पुरानी।
परशुराम के साथ ,भिड़ा रावण अभिमानी।
सागर तट पर लगा, हुआ था मेला भारी।
आए देश न देश,वीर जोधा बलधारी।
सब वीरों को खास,निमंत्रण था पहुँचाया।
परशुराम को नहीं, कार्य क्रम में बुलवाया।
भृगुवंशी को पता, चला तो खुद ही आए।
करके आँखें लाल, दशानन को समझाये ।
एक गुरू के शिष्य,यहाँ हम दोनों भाई।
मुझे बुलाया नहीं, कौन सी हुई बुराई।
नहीं बुलाया खैर,प्रेम अब बांटो भ्राते।
मुझको करो प्रणाम, बड़े होने के नाते।
मैं राजा लंकेश, मान का हूँ अधिकारी।
गलत नीति आदेश, कर रहे हो तुम जारी।
तुम आदर के योग्य, बुद्धि में चढ़े नहीं हो।
बल वैभव यश आदि, किसी में बड़े नहीं हो।
साधु संत से रहो, ज्ञान से सोच विचारो ।
मुझको करो प्रणाम, खुशी के साथ पधारो।
बढ़ता गया विवाद,किसी को कोइ न माने।
खुद वीरों में बड़ा, स्वयं को लगा बताने ।
द्व॓द युद्ध हो जाय,तभी निर्णय संभव है।
किसमें कितना पता,चले बल का वैभव है।
चलो साथ में लंक, दुर्ग के द्वार लगाऊँ।
खोल बताओ उन्हें, आपको जीता पाऊँ।
हँस बोले भृगुनाथ,नहीं है मन में शंका।
सब वीरों को छोड़, भला क्यों जायें लंका।
(कृमशः)
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
17/1/23