मृदा मात्र गुबार नहीं हूँ
मृदा मात्र गुबार नहीं हूँ
पंचमहाभूत सार नहीं हूँ, मृदा मात्र गुबार नहीं हूँ।
माता गर्भाशय अभ्यन्तर,भ्रूण स्थापित रहा निरंतर।
झूले में मैं हीं खिलता था, कदम बढ़ाते गिर पड़ता था।
मुझमें हीं थी हँसी ठिठोली,बाल्य काल के वो हमजोली।
मैं हीं तो था तरुणाई में,यौवन की उस अंगड़ाई में।
दिवा स्वप्न मन को आते थे,उड़न खटोले तन भाते थे।
प्रौढ़ उम्र में तन के ताने,बुढ़ापे में शकल ठिकाने।
बचपन से पचपन तक अबतक,बदल रहा तन मेरा अबतक।
भ्रूण वृद्ध मन का सपना है,रूप रंग तन का गहना है।
ये तन मन हीं मात्र नहीं हूँ,बदल रहा जो गात्र नहीं हूँ।
तन मन से अति दूर तदनंतर,मैं अबदला रहा अनंतर।
अजय अमिताभ सुमन