मृत्यु
मृत्यु स्रोत है डर का।कोई व्यक्ति यदि किसी भी विषय-वस्तु से डरता है, चाहे वह भय बिजली के बंद तार से हो या एक चपड़े से, तो उस भय के पीछे मुख्य अथवा कह लें कि मूल कारण है मृत्यु।
मृत्यु की और व्याख्या की जाए, तो मृत्यु अंत है उस जीवन का, जिसमें मनुष्य भाँति-भाँति के जतन करता है, पाप-पुण् करता है, उस परिभाषा के अनुसार, जो विधि को मानक के रूप में स्वीकार करते हुए तथा विधि के अंतर्गत आने वाले कृत्यों पर आधारित है।हत्या एक पाप है यदि कपटी उद्देश्य से की जाए और वह ही हत्या एक अपराध भी है यदि सामान्य रूप से लागू विधि-व्यवस्था के अनुसार आँका जाए, तथा वहीं पर यदि विधि-व्यवस्था को मानक के रूप में स्थापित करते हुए आँकलन किया जाए, तो हत्या एक पुण्य है यदि उचित उद्देश्य से कर दी जाए, (यहाँ ‘की जाए’ के स्थान पर ‘कर दी जाए’ वाक्यांश को प्रयोग में लाने का कारण यह है कि वह हत्या, जो पाप घोषित है, सामान्यतः एक योजनान्तर्गत, कपटी उद्देश्य की जाती है और हत्या, जो कि पाप नहीं है या किसी परिस्थिति-विशेष में पुण्य भी है, उचित और न्यायपूर्ण उद्देश्य से कर दी जाती है या कहना अनुचित नहीं होगा कि हो जाती है) तो क्षम्य भी प्रमाणित हो जाती है।
जो भी ऊँच-नीच, छल-कपट, अच्छा या बुरा, इत्यादि इस जीवनकाल में मनुष्य करता है, वे सभी जीवनकाल में उसे आनंद भी दे सकते हैं और दुःख भी दे सकते हैं, किन्तु मनुष्य की मृत्यु के पश्चात यहीं पर, इसी जन्म में, इसी धरती के अन्य जीवित मनुष्यों द्वारा उसके इन कृत्यों के आधार पर पाप और पुण्य की श्रेणी में बाँट कर, उस व्यक्ति-विशेष की प्रकृति का निर्णय किया जाता है, जहाँ किसी को वह मृत व्यक्ति उचित लगता है तो किसी को अनुचित; किसी को पापी लगता है तो किसी को पुण्यात्मा लगता है; कोई उसे अपशब्द कह कर तिरस्कृत करता है तो कोई प्रेम भाव से याद करता है।
एक ही व्यक्ति सभी की दृष्टि में न कभी समान हो पाया है और न सम्भवतः कभी कोई व्यक्ति सभी की दृष्टि में एक समान छवी बना सकता है।
मृत्यु के पश्चात भी मृत व्यक्ति के कृत्य जीवित रहते हैं और इतिहास में, चाहे पोथियों में स्थान मिले या उसके समाज-विशेष में, उसी रूप में स्मरण का विषय बनते हैं, जिस रूप में अधिक से अधिक जीवित व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत किये गए हैं।
मृत्यु अभिमान है उन लोगों का, जिन्होंने स्वार्थहीन रह कर औरों को जीवन दिया और अहंकार है उन लोगों का, जिन्होंने औरों को जीवन का अर्थ बताया या कह लें कि जीने की शैली उन्हें समझाई, जिनका जीवन व्यर्थ जा रहा होता था। मृत्यु एक छोटा सा शब्द है किंतु शाब्दिक अर्थ से हट कर इसके अर्थ का विश्लेषण किया जाए, तो पता चलता है कि इस सूक्ष्म से शब्द का वैश्विक अर्थ (शाब्दिक अर्थ के अलावा जो भी कह लें) इसके शाब्दिक अर्थ से उतनी ही दूरी बना के रखता है, जितनी दूरी का अनुमान धरती और आकाश के बीच में यदि सीधी रेखा खींच दी जाए, तो वो भी नहीं लगा सकती।
जीवनकाल के कर्मों-कृत्यों का आंकलन मृत्यु के पश्चात ही होता है। धर्म-शास्त्रों के अनुसार तो मृत्यु के पश्चात भी कृत्यों के अनुसार मृत्यु के देवता स्वर्ग और नर्क में वास का निर्णय करते हैं और भले ही शास्त्रों के इन तथ्यों का कोई ठोस प्रमाण न हो, किन्तु इसकी प्रयोज्यता आपसी तुलना में समान प्रतीत अवश्य होती है।
उपरोक्त में कहीं भी किसी भी शब्द, वाक्य या वाक्यांश के माध्यम से मृत्यु की परिभाषा बताने का प्रयास भी नहीं किया गया है क्योंकि मृत्यु को परिभाषित कर पाना अभी तक तो मुझे देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ कि किसी के लिए भी सम्भव हो पाया हो। यहाँ इस सम्पूर्ण लेख में मात्र मृत्यु की परिभाषा के अंतर्गत आने वाले (मेरे व्यक्तिगत विश्लेषण के अनुसार) कुछ ऐसे तथ्यों या अंशों का वर्णन किया गया है, जो स्वयं मृत्यु की परिभाषा या थोड़ा ऊपर की सतह से देखें, तो मृत्यु के वास्तविक अर्थ की खोज में सुचारू रूप से अग्रसर हैं।
दो या तीन या असंख्य बिंदु एक सादे पन्ने पर लगा के उनके ऊपर कहीं भी ‘मृत्यु’ लिख दें, जो कि पर्याप्त है मनुष्य को मृत्यु की परिभाषा जानने मात्र के लिए क्योंकि यह कोई नहीं जानता कि कब मृत्यु का अनुभव प्राप्त होने का समय आ जाए और उसके बाद उस अनुभव को किसी से साझा तो कर नहीं सकते।
सम्भव है कि जीवनरेखा के अंतिम बिंदु पर विराजमान मैं यह सब लिख रहा हूँ।
©®सन्दर्भ मिश्र पुत्र श्री नरेन्द्र मिश्र,
ग्राम दफ्फलपुर,
पोस्ट व थाना रोहनियाँ,
जनपद वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत-221108