*मृत्यु-चिंतन(हास्य व्यंग्य)*
मृत्यु-चिंतन(हास्य व्यंग्य)
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मरने का नाम सुनते ही व्यक्ति दार्शनिक हो जाता है । सर्वप्रथम प्रतिक्रिया यही होती है कि दुनिया में कुछ नहीं रखा है । शव के अंतिम दर्शन करते समय तथा शव-यात्रा के समय संसार की नश्वरता का बोध हर प्राणी को होता है । शमशान घाट में बैठकर आदमी अपने शरीर को देखकर भी उदासीन होने लगता है। कहता है कि इसमें कुछ नहीं रखा है। फिर दो घंटे बाद जब चाट-पकौड़ी खाता है ,तो कहता है कि मसाला और मिर्च थोड़ी कम है । स्वाद नहीं आ रहा ।
मरने का मतलब यह नहीं होता कि आदमी जीवन का स्वाद लेना छोड़ दे । शरीर की नश्वरता अपनी जगह है । जीवन का आनंद अपनी जगह है । सबको मालूम है कि एक दिन इस दुनिया से जाना है मगर जोड़-तोड़ करके ज्यादा से ज्यादा धन एकत्र करने की होड़ सब जगह लगी हुई है । अपनी कोठी कितनी बड़ी हो इसकी तो बात जाने दीजिए ,लोग सरकारी कोठी तक का कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं होते । यद्यपि पता है कि एक दिन अपनी कोठी भी छोड़नी पड़ेगी और सरकारी कोठी भी छोड़ कर जाना पड़ेगा ।
आदमी का बस चले तो मरते समय अर्थी पर अपने साथ तिजोरी साथ में लेकर चले । लेकिन यह संभव नहीं होता। तिजोरी छोड़कर व्यक्ति चला जाता है और बाद में बँटवारे के झगड़े इस बात पर होते हैं कि तिजोरी का माल किस-किसको मिलेगा ? कितना – कितना मिलेगा ? उस का बँटवारा किस प्रकार होगा ? कई बार तिजोरी खोलने पर उस में अथाह धन निकलता है और बँटवारे में झगड़े होने लगते हैं । कई बार तिजोरी बहुत मुश्किल से खुलती है और अंदर से खाली मिलती है । तब यही सोचना पड़ता है कि उत्तराधिकारियों में से किसने वह धन चुराया है अथवा कहीं मृतक तो अपने साथ लेकर नहीं चला गया ?
जीवन और मृत्यु दोनों ही रहस्य-रोमांच से भरे हुए हैं । जब तक व्यक्ति जीवित है ,उसे बैठने के लिए सोफा तथा लेटने के लिए पलंग चाहिए। जब मर गया तो न सोफे की जरूरत, न पलंग की। घर वाले इस बात पर विचार करते हैं कि सूर्यास्त में अभी कितना समय है ? अगर समय कम है तो विचार यही रहता है कि तुरत-फुरत ले जाकर अंतिम संस्कार कर दिया जाए वरना लाश के पास रात भर बैठ कर रोना पड़ेगा ।
आदमी एक लिमिट में रोना चाहता है । रोने के लिए एक निश्चित समय से ज्यादा कोई अपना समय नहीं दे सकता । फिर उसके बाद सभी हँसना और मुस्कुराना चाहते हैं। शव-यात्रा में अगर देर है तो आदमी खिसक लेता है और कहता है ठीक समय पर दोबारा आ जाऊंगा । कई बार शव-यात्रा जब ठीक समय से आरंभ नहीं होती है तब लोग एतराज करते हैं और कहते हैं कि हमारा समय बर्बाद हो रहा है । जब शमशान घाट में शव को अग्नि दे दी जाती है तब तो अनेक लोग थोड़ी देर बाद ही पूछना शुरू कर देते हैं कि कपाल-क्रिया में इतनी देर क्यों लग रही है ?
कई लोग जब शोक प्रकट करने जाते हैं तो मजबूरीवश तब तक बैठते हैं, जब तक कोई व्यक्ति उठ कर जाने की पहल नहीं कर देता । आदमी को देखकर आदमी विदा लेता है । शोक प्रकट करना एक शिष्टाचार होता है । जिनकी मृत्यु पर शोक संदेश ज्यादा आते हैं ,उसका अभिप्राय यह नहीं होता कि लोग ज्यादा दुखी हैं। प्रायः यह उनके बड़े रुतबे का प्रतीक-भर होता है । वैसे एक दिक्कत यह भी होती है कि आदमी शोकाकुल तो होता है लेकिन शोक को प्रकट कैसे करे , यह उसकी समझ में नहीं आता । शोक-संदेश शोक को प्रकट करने का एक माध्यम बन जाते हैं ।
शोक को प्रकट करने का एक अन्य माध्यम आँसू होते हैं। जिन लोगों के आँसू आराम से निकल आते हैं ,उनका शोक प्रकट हो जाता है । कुछ लोगों के आँसू नहीं निकलते हैं । उनके सामने दिक्कत आती है। कुछ लोग यद्यपि आँसू नहीं निकाल पाते हैं फिर भी आँखों को रुमाल से पोंछते रहते हैं। कुछ लोग भावुक इस प्रकार से होते हैं कि आँसुओं का कोटा भावुकता से पूरा कर लेते हैं । कुछ लोग गजब का रुदन करते हैं । सबका ध्यान उनकी तरफ आकृष्ट हो जाता है । लोग पूछते हैं – “यह कौन हैं ? ” बाद में पता चलता है कि उन्हें कोई नहीं जानता।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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