*मृत्यु एक साधारण घटना है*
मृत्यु एक साधारण घटना है
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मृत्यु एक बहुत ही साधारण-सी घटना है। इतनी साधारण कि उस पर आश्चर्य करने का कोई अर्थ ही नहीं है । जिस तरह घर की रसोई में बना हुआ भोजन कुछ समय के बाद खराब हो जाता है या खाने के बिस्कुट के पैकेट के ऊपर कुछ महीने के बाद उनके एक्सपायर होने की तिथि अंकित होती है और उसके बाद वह उपयोग के योग्य नहीं रहते , ठीक उसी प्रकार मनुष्य के जन्म के समय ही उसकी एक्सपायरी डेट सौ वर्ष एक प्रकार से लिख दी जाती है अर्थात ज्यादा से ज्यादा मनुष्य सौ वर्ष ही जिएगा और उसके बाद उसकी मृत्यु निश्चित है।
सौ वर्ष ही क्यों ?ः- इस प्रश्न का उत्तर यह है कि मनुष्य के शरीर की आंतरिक संरचना ही ऐसी है कि वह सही परिस्थितियों में सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है । अगर परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं अथवा खराब हैं या किसी कारणवश बाहरी चोट- फेंट आदि से शरीर को भारी नुकसान पहुँच जाता है , तब शरीर कभी भी काम करना बंद कर सकता है और ऐसी स्थिति में मनुष्य की मृत्यु सौ वर्षों से काफी पहले भी हो सकती है ।
अनेक दुर्घटनाओं में व्यक्ति मारे जाते हैं और इन सब स्थितियों में मृत्यु की कोई आयु निश्चित नहीं होती । छोटे-छोटे बच्चे बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं और बाल्यावस्था में ही उनका देहांत हो जाता है ।
बूढ़ापनः- ठीक-ठाक परिस्थितियों में भी पचास वर्ष के बाद व्यक्ति बूढ़ेपन की ओर अग्रसर होना शुरू कर देता है । अनेक मामलों में 60 वर्ष की आयु तक व्यक्ति को या तो स्वयं को एहसास नहीं होता या फिर वह दूसरों को अपने बूढ़ेपन का एहसास नहीं होने देता।
60 वर्ष की आयु के पश्चात शरीर बूढ़ा होने लगता है, इस बात को पहचानते हुए वृहद सामाजिक हितों की दृष्टि से भारत रत्न श्री नानाजी देशमुख ने 60 वर्ष की आयु पर राजनीति से रिटायर होने का निर्णय लिया था । उन्होंने श्री मोरारजी देसाई की जनता सरकार में मंत्री पद भी ग्रहण नहीं किया था तथा अपने जीवन के अंतिम तीन दशक से अधिक के लंबे समय में अन्य रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहे।
लेकिन 60 से 70 के दशक में प्रायः ऐसा नहीं होता । व्यक्ति के चेहरे ,उसकी चाल- ढाल , अनेक बार बालों की सफेदी , चेहरे पर झुर्रियाँ आदि भेद खोल ही देती हैं कि शरीर बूढ़ा होने लगा है।
70 से 80 के दशक में व्यक्ति निश्चित रूप से बूढ़ेपन की स्थिति में आ जाता है और 80 वर्ष की आयु अनेक बार पूर्णता और परिपक्वता को दर्शाने वाली स्थिति होती है । जिन लोगों की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में होती है , उनके बारे में यही माना जाता है कि उन्होंने एक दीर्घायु प्राप्त की है।
80 से 90 वर्ष की आयु के दशक में तो व्यक्ति लगभग निढ़ाल होने लगता है । केवल कुछ ही लोग हैं , जो 80 वर्ष की आयु के बाद भी सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में भली प्रकार समर्थ सिद्ध होते हैं । श्री मोरारजी देसाई का नाम ऐसे आयु वर्ग के व्यक्तियों में बहुत आदर के साथ लिया जाना चाहिए । आप 81 वर्ष की आयु में भारत के प्रधानमंत्री बने थे और आपने भली प्रकार से स्वस्थ, सक्रिय तथा उत्साह पूर्वक जीवन जीते हुए अपने पद के दायित्व को निभाया।
90 से 100 वर्ष तक की आयु का हम दशक के स्थान पर एक-एक वर्ष करके आकलन कर सकते हैं अर्थात यह जीवन का वह अंतिम दशक होता है , जब प्रत्येक वर्ष स्थितियाँ बदलती हैं। लेकिन यह एक दुर्लभ स्थिति हो जाती है कि व्यक्ति 90 के उपरांत भी सामाजिक रूप से सक्रिय रहे। अन्यथा अधिकांशतः 90 के उपरांत व्यक्ति घर की चहारदीवारी में सिमट कर रह जाता है और कई बार तो वह खाट पर ही पड़ जाता है । ऐसी आयु जो बिस्तर पर पड़े – पड़े तथा अनेक रोगों से ग्रस्त होकर समाप्त हो और देखने में तो बड़ी लगे लेकिन वास्तव में उसकी उपादेयता कुछ न हो , ऐसी दीर्घायु का होना भी व्यर्थ है ।
केवल दुर्लभ कोटि के व्यक्ति ही सामाजिक रूप से सक्रिय रह पाते हैं। प्रसिद्ध कहानीकार रामपुर निवासी प्रोफेसर ईश्वर शरण सिंहल को मैंने अनेक वर्ष तक अर्थात 90 वर्ष की आयु से 95 वर्ष की आयु तक लगातार अपने कार्यक्रमों में अध्यक्ष तथा मुख्य अतिथि के आसन पर बिठाकर उनके श्रीमुख से समारोह में भाषण-श्रवण का लाभ प्राप्त किया है । यह स्थिति दीर्घायु की उपादेयता को भी दर्शाती है तथा यह भी बताती है कि व्यक्ति का जीवन 100 वर्ष तक ठीक-ठाक चल सकता है।
जहाँ तक अपने जीवन की जन्म- शताब्दी जीवनकाल में ही.मनाने का प्रश्न है, यह सौभाग्य तो अपवाद स्वरूप मुश्किल से एकाध लोगों को ही प्राप्त होता है । अधिकांशतः दीर्घायु को प्राप्त करने वाले लोग भी 97-98 अथवा 99 से आगे रुक जाते हैं ।
ऋग्वेद 3/17/3 में यद्यपि 300 वर्ष की आयु का उल्लेख मिलता है तथा यह कहा गया है कि अगर व्यक्ति आहार-विहार आदि को नियमित रूप से धारण करे , तब उसकी आयु तीन गुना अर्थात 300 वर्ष तक हो सकती है। वेद का यह संभवतः अकेला मंत्र है जिसमें 300 वर्ष की आयु की बात कही गई है।
थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना जिन महात्माओं की प्रेरणा से हुई थी, उनकी आयु संभवतः ऋग्वेद के बताए गए इसी कोष्ठक के अंतर्गत आती है ।थियोसॉफिकल सोसायटी की संस्थापिका मैडम ब्लैवट्स्की अपनी वृद्धावस्था के अवसर पर याद करते हुए कहती हैं कि “जब मैं युवा थी , तब भी वह महात्मागण युवा थे और अब जब कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ, तब भी वह महात्मागण युवा ही हैं। “ऐसा यौवन दुर्लभ में भी दुर्लभतम व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है ।
प्रकृति की संपूर्णता पर जब हम दृष्टिपात करते हैं ,तब पाते हैं कि प्रकृति का जो सौंदर्य है तथा उसमें ऊर्जा के जो अपार भंडार भरे हुए हैं , वह अनंत काल तक चलने की दृष्टि से बनाए गए हैं ।उसकी तुलना में एक मनुष्य का जीवन केवल 100 वर्ष ही होता है , जो वास्तव में नगण्य ही कहा जा सकता है। प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने की इजाजत किसी भी मनुष्य को अथवा किसी कालखंड की मनुष्य- जाति को नहीं दी जा सकती । सभी मनुष्यों को क्योंकि वह विचारवान प्राणी हैं, इस बात को समझना होगा कि इस धरती पर उन्हें केवल 100 वर्ष रहने के लिए मिले हैं, जबकि हजारों वर्षों से इस धरती का उपयोग न केवल उनके पूर्वजों ने किया है अपितु आने वाले हजारों- लाखों वर्षों तक उनकी संताने इस धरती का उपयोग करेंगी। ऐसे में मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य यही रह जाता है कि वह जैसी धरती उसे मिली है, उससे बेहतर अवस्था में इस संसार को छोड़कर जाए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ ज्यादा सुख , शांति और समृद्धि के साथ जीवन व्यतीत कर सकें ।
आत्मा का प्रश्न ः- अब एक ही प्रश्न रह जाता है कि क्या जीवन जन्म के साथ शुरू होता है और मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है अथवा कोई आत्मा नाम की चीज भी है , जो सृष्टि के आरंभ से हमारे साथ है अथवा यूँ कहिए कि वह हमेशा से है और हमेशा रहेगी तथा हमारा शरीर बदलता रहेगा ?
आत्मा के अस्तित्व का कोई स्पष्ट रूप से प्रमाण तो नहीं है और हो भी नहीं सकता क्योंकि अगर आत्मा को हर साधारण व्यक्ति जानने लगे तथा उसे पता चल जाए कि पिछले 10 – 20 जन्मों में उसने कहाँ-कहाँ जन्म लिया था तथा उसका जीवन कैसे- कैसे बीता, तब वह सोच – सोच कर पागल हो जाएगा और अपने अतीत में ही उलझ कर रह जाएगा। अतः असाधारण और बिरले कोटि के व्यक्तियों को ही यह आत्मा का ज्ञान मिल पाता है और यही उचित भी है । ऐसे व्यक्ति शांति की चरम अवस्था तक पहुँच जाते हैं। वह सांसारिकताओं में फँसे नहीं होते तथा भौतिकवाद के प्रति उनमें कोई पागलपन नहीं होता । इस सृष्टि का हर प्राणी उनके लिए आत्मवत है तथा सबसे उनकी आत्मीयता और एकात्मभाव बना हुआ होता है । अतः ऐसे में जब उन्हें अपने पिछले जन्मों का ज्ञान हो जाता है , तब भी समाज को कोई न तो हानि पहुँचती है और न ही कोई अव्यवस्था पैदा होती है । असाधारण शक्तियाँ केवल असाधारण व्यक्तियों को ही प्राप्त होनी चाहिए तथा आत्मा को जानने की दृष्टि से भी यह नियम लागू होता है और बहुत सही ही लागू होता है । प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करने से आत्मा को जाना तो जा सकता है , लेकिन इसमें कितने लंबे समय की आवश्यकता पड़ेगी ,यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
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लेखक : रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 999 7615451