मृत्यु आते हुए
मृत्यु आते हुए
——————-
पूर्णिमा शनैः शनैः
कण-कण क्रन्दन करके
हो जाता है अमावस।
जीवन का लम्हा-लम्हा
अफसोस करते हुए
हो जाता है निष्कासन।
देह में कुछ बदलता है।
मन में मृत्यु का भय
चलने लगता है।
स्रष्टा का मन्तव्य
हमारी इच्छाओं से बड़ा होने लगता है।
समय चुका देने का अफसोस और
त्रुटियों का पश्चाताप
सुगबुगाने लगता है।
चुनौतियों का अवसान
होने लगता है।
शनैः शनैः कोई प्रतिस्पर्द्धा
बचती नहीं।
और कोई प्रतिद्वंद्वी बचता नहीं।
समर में अकेला खड़ा होना
अत्यन्त दुःखद है।
किन्तु,होना पड़ता है।
खुद ही खुद का आकलन
करना होता है।
खुद को कटघरे में खड़ा करना
और जबाब-तलब करने का
जोखिम
उठाना पड़ता है।
कवच नहीं बचता कोई।
लहू अपना गुण,घर्म लगता है खोने।
धमनियों में होने ठंढ़ा और
उबलने।
विवश होकर प्रकाश
तम की ओर चलने लगता है।
मनुष्य रूपी देह गलने लगता है।
आत्मा अपनी परछाईं उजाड़ने लगता है।
आगत मृत्यु देखकर दहाड़ने लगता है।
मनुष्य को मोह
अगर्भित उहापोह
ईश्वर से विद्रोह
बढ़ने लगता है।
कर्म से अर्जित ग्यान
और गयान से परिचालित कृत कर्म की
सार्थकता
मनुष्य को पाप व पुण्य का
आईना दिखाने लगता है।
देवता का सुगंध या
दाऩव का दुर्गंध अपने ही
शरीर से उत्पन्न होने लगता है।
दुर्गम पथ से चल आया हूँ
सदा खोजता सुगम पथ रहा।
आगे का पथ और यात्रा
थकने का मन नहीं है किन्तु,
साथ चरण का नहीं रहा है।
मृत्यु और वर्ष का अवसान।
किन-किन सन्दर्भों में समान।
आकाँक्षा जीने की अचानक तीव्र।
हौसला पस्त किन्तु।
मष्तिष्क के तन्तु सक्रिय
रगों और नसों में डूबता हआ प्राण-तत्व।
अपनी दुनिया को धुँध में डूबता
देखने को बाध्य।
मृत्यु ऐसा होना ही है संभाव्य।
मृत्यु के इस काल में
ज्ञात होता है कि
मृत्यु तो अपने ही शरीर में
निवास कर रहा था।
जीवन के हर श्वास के साथ ही
साँस भर रहा था।
————————————————25/5/24