मृग मरीचिका
नसीहतें इश्क में एक बार नही,
बार-बार हमें मिलता रहा…
मरीचिका के तरह छुप-छुप कर
वो मुझसे दूर जाती रही…
प्यासे मृगा के तरह भटकता-भटकता
हुआ, मैं उसके करीब जाता रहा…
उसको मालूम था।।।।
उसके ऑगन में सजी थी जो महफिल
वो मेरे, जश्न-ए-जख्मों की थी मगर
वो सवर-सवर कर सवरती रही
मैं बिखर-बिखर कर बिखरता रहा…
सजा-ए-इश्क कहू इसे या रिबायत
जमाने की ?
रो रो कर वो अपनी खुशियाँ छलकाती रही,
हस-हस कर मैं अपनी ऑशु छिपाता रहा…
-के के राजीव