मृगतृष्णा / (नवगीत)
सिलबट्टे पर
चटनी जैसा
घिसता रहता आदमी ।
एक यहाँ की,
एक वहाँ की
डींग मारता ।
जाने किसकी
कहाँ-कहाँ की
हींग फाँकता ?
ख़ुद जाले में
मकड़ी जैसा
उलझा रहता आदमी ।
गिरगिट जैसा
रंग बदलता
झटपट-झटपट ।
मृगतृष्णा में
भागा,फिरता,
सरपट-सरपट ।
बिन पेंदी के
लोटे जैसा
लुढ़का रहता आदमी ।
उल्लू जैसा
जाग रहा है
रातों-रातों ।
आलस के पल
काट रहा है
बातों-बातों ।
बिना नमक के
भोजन जैसा
ज़िन्दा रहता आदमी ।
सिलबट्टे पर
चटनी जैसा
घिसता रहता आदमी ।
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— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।