*मूलांक*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
मूलांक
बरसती बारिश रात की
लरजती छाती हर बात पर
सहमा – सहमा सा मौसम
अनदेखी अनकही मुलाकात थी
वो घबराई सी सिमटी थी
मैं चंचल मस्त भंवर सा शरारती
फिर ऊपर से कड़कना बिजली का
जैसे टूटा कहीं पहाड़ सा
न वो बोली न मैं बोला
बेहद चुप्पी थी सालती
फिर आई मुसीबत सामने
जल का स्तर था लगा बढ़ने
चहुं और विकट अधियारा था
हाँथ को हाँथ भी अनजाना था
वो अबला नारी वक्त से हारी
मजबूरी में आकर पास मेरे यूं बोली
कुछ कीजिए ऐसे तो हम डूब जाएंगे
नाहक अपनी जान गवायेंगे
यक दम मेरा पुरुषत्व जगा
मैं बोला मत घबराएँ आप
मदद मिलेगी हमको
थोड़ा सा धैर्य कीजिए आप
मोबाईल निकाला तब मैंने
लेकिन वो भी गीला था
फिर हिम्मत करके मैंने उसको
पास के पेड़ पर चड़ा दिया
साथ साथ खुद को भी
पास की डाल पर बैठा दिया
फिर सुबह कटी जैसे तैसे
मदद मिली हम अपने अपने घर पहुंचे
ये वाकया मेरे जीवन में सच – सच गुजरा