मूक चट्टानों की भाषा
श्रृष्टि का हर जीवन ढल कर मृत्यु की ओर जाता है।
और इस जीवन मृत्यु के बीच है
मेरा अस्तित्व।
समेटा है इन कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं को, इन चट्टानों पर
मेरी उपस्थिति के चिन्ह है ,
मेरे होने के साक्षी हैं।
मूक हैं परंतु शक्तिहीन नहीं ।
इन जड़ पत्थरों पर,
ये रेखाएं मेरी चेतना हैं
मेरे औजार थोड़े पुराने हैं
पर गढ़ा इन्हे मैंने नई उमंग से है
कूंची होती तो कई रंग भरता
पर रंग टिकते कहां हैं?
धूल धूप पानी आंधी
खरोंच तो सकते हैं पर मिटा नहीं सकते
मैंने इन शिलाओं को भाषा दी है
समय के आंचल में खेल, जब ये बड़ी होंगी
तब ये बोलेंगी
इन्हे छोड़े जाऊंगा मैं,
उनके लिए, जो आयेंगे एक दिन
अपने अस्तित्व का मूल इन रेखाओं में तलाशने
अपने होने और मेरे ना होने
के बीच उस समय को मापने
चट्टनों की शिल्पकारी
तब बोलेंगी
आया था मैं कभी इस धरा पर
जैसे तुम आए हो
मैं विचारहीन आया था,
मानव जाति के लड़कपन में
तुम शोधार्थ आए हो
व्याकुलता लिए,
जिज्ञासा लिए।
कौन हो तुम?
कहां से चले और कहां पहुंचे हो?
क्या पाया तुमने और क्या है जो छूट गया?
उत्तर गढ़ दिया है इन शिलाओं पर
ये आकृतियां बताएंगी
आदि क्या है और अंत क्या?
रास्ता तो नहीं भटकोगे?
पत्थरों पर छेनी से जो चित्रकारी बनाई है
छेद कर सीना गाड़ दिया है
एक निर्जीव चट्टान पर लिपटा
एक बोलता मील का पत्थर।