मुफ़्त मुफ़्त मुफ़्त
शहर के जिला अस्पताल में फिजीशियन के पद पर कार्य करते हुए मेरा पाला सैकड़ों ज़हर खुरानी के मरीजों से पड़ा। वे अधिकतर गरीब मेहनतकश मजदूर वर्ग के लोग हुआ करते थे जो पंजाब हरियाणा आदि में जीविकोपार्जन करने हेतु अपना सुदूर प्रदेश छोड़कर वहाँ जाते थे और एक लंबा समय या साल दो साल कमाने के बाद अपनी समस्त बचाई हुई पूंजी इकट्ठा कर अपने घर गांव देहात की ओर अति उल्लास में भर लौटते थे । वे लोग चलते समय अपने लिए चटक रंग बिरंगी नई पोशाकें पहन कर , घड़ी , रंगीन चश्मा , ईयर फोन युक्त मोबाइल एवं ऐसे ही कुछ अन्य उपहार आदि भी चलते समय खरीदते थे और अमृतसर लुधियाना आदि शहरों से चलने वाली रेलगाड़ियों के सामान्य दर्जे में झुंड के झुंड बनाकर रेलगाड़ी के सामान्य दर्जे में ठूंसकर कर बैठ यात्रा करते थे । ऐसे लोगों की जहर खुरानी वाले गैंग उनकी रंगत , वेशभूषा , गठरी मुठरी देखकर दूर से ही उनकी पहचान कर उन्हें अपना शिकार बनाते थे । यह लोग उन भोले यात्रियों के साथ सफर में बैठ जाते थे और अपनी बातों से उन्हें फुसलाकर उन्हें किसी खाद्य पदार्थ में मिला जहर दे देते थे । यह रेलगाड़ियां अक्सर शाम के समय पंजाब से चलतीं थीं और मेरे शहर में मध्य रात्रि को पहुंचती थीं । ट्रेन के प्रस्थान करने के कुछ देर बाद ही यह जहर खुरानी वाले अपने शिकार को को विषाक्त पदार्थ खिला देते थे जिसका असर दो-तीन घंटे में आ जाता था और शिकार के गहरी नींद या बेहोशी में जाने पर उसका मूल्यवान सामान और नगदी लूट कर उतर जाते थे । जब मध्य रात्रि में उनकी यह रेलगाड़ी मेरे शहर पहुंचती थी तो रेलगाड़ी में लदे इन बेहोश जहरखुरानी के शिकार मरीजों को जीआरपी उतार कर जिला अस्पताल में दाखिल करा देती थी । जहां मध्य रात्रि में मेरा इनके झुण्डों से सामना होता था । वे बेचारे तीसरे दिन होशो हवास में आते थे , उनमें से अक्सर उम्र के आखरी पड़ाव वाले प्राण त्याग देते थे । तब तक इनका लक्षणों के आधार पर इलाज चलता रहता था । मैं ऐसी होने वाली घटनाओं पर अक्सर सोचा करता था और उनके ठीक हो जाने के पश्चात उनसे बातें कर उनकी इस दुर्घटना का विवरण और कारण जानने के लिए पूरा वृत्तांत उनसे पूछता था । अधिकतर लोग खोए खोए गुमसुम निराश भाव में रहते थे और मेरे प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते थे । उनमें से अधिकतर वापस अपने कार्यक्षेत्र पंजाब-हरियाणा वापस लौट जाते थे यानी कि जहां से आए थे , बिना अपने गांव देहात पहुंचे वापस अपने कार्य क्षेत्र में लौट जाते थे । एक बार उनमें से एक पीड़ित ने मुझे बताया कि जब रेलगाड़ी चल रही थी तो उसमें चाय बिस्कुट बेचने एक हरकारा आया तथा मेरे अनजान सहयात्री ने जिसने अब तक हम लोगों से काफी मित्रता गांठ ली थी चाय पीने के लिए कहा और हम सब ने वह चाय पी ली और उसके बाद हम सब बेहोश हो गए और इसके बाद क्या हुआ कैसे इस अस्पताल में आए हमें नहीं पता चला । मैंने उससे कहा कि तुम्हें मालूम है कि किसी अनजान व्यक्ति से कुछ खाने पीने की वस्तु नहीं लेनी चाहिए , इस पर उस पीड़ित ने जो भोला भाला स्वाभाविक सा उत्तर दिया वह मुझे आज भी याद है उसने कहा
‘ डॉक्टर साहब हमने सोचा कौन हमको पैसा देना है वह मुफ्त में चाय पिला रहा था सब पी रहे थे तो हमने भी पी ली ।’
जब कभी मैं कहीं पर कुछ मुफ्त में घटित होता हुआ देखता हूं चाहे वह कोई वस्तु हो या कोई योजना या मुफ्त का सॉफ्टवेयर – किसी विशेष व्यक्ति , वर्ग , समाज , समुदाय , शहर , प्रदेश अथवा राष्ट्रीय स्तर पर हो तो मुझे मानव मन मस्तिष्क पर हावी यह कमज़ोर सोच
” मुफ्त में मिल रहा है कौन हमें पैसा देना है ‘ याद आ जाती है ।
हमारे समाज के अधिकतर लोगों को अकर्मण्यता की ओर खींचती मुफ्त खोरी की प्रव्रत्ति हमारे समाज में एक ऐसे नपुंसक वर्ग को जन्म दे रही है जो अब इस मुफ्तखोरी को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान कर विद्रोह करने तक पर उतारू है । इस मुफ्तखोरी की मानसिकता में जकड़े होने के साथ ये लोग अपना बहुमूल्य भूत भविष्य और वर्तमान उस बन्दे की तरह मुफ्त का लालच देने वाले को गंवा बैठते हैं और ये मुफ्त का लालच दिलाने वाले हमारी इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हैं । पता नहीं कब हमारी सभ्यता इस मुफ्त खोरी की लालची प्रव्रत्ति से मुक्त होकर आत्मनिर्भरता सीखे गी ।