((((मुफ़लिसी))))
बहुत से हुनरमंदों की कहानियां किताबों में दब गई,
बहुत से जरूरतमंदों की जवानियाँ हिसाबों में दब गई।
करते रह गए गीले शिकवे वक़्त की दीवारों से,
कितने आशिक़ों की निशानियां रिवाजों में दब गई।
हम भी उड़ते रहे एक ही छत पर कबूतर बनकर,
नाजाने कब आसमां नापने की उम्मीदें ख्वाबों में दब गई।
अलग ही नशे में जी रहे थे हम,
संभलते संभलते कितनी ही शामें शराबों में दब गई।
ढूंढते रहे अपनी मुफ़लिसी का जवाब,
साल दर साल ज़िन्दगी जवाबों में दब गई।
कहाँ लगाते ये आवारा दिल अमन,
ये निगाहों की नीयत ही शाबाबों में दब गई।