मुहावरों पर कविता भाग-२
करके वादा वो नौ दो ग्यारह हो जाते हैं
और हम मन ही मन में हवाई किले बनाते हैं
हम कितने विश्वास से उन्हें संग रख लेते हैं,
पर वो तो रातों-रात ही रंगा सियार हो जाते हैं
उन्हें समझ पाना तो टेढ़ी खीर होती जाती है
हम उन्हें समझने को खुद से ही दूर होते जाते हैं
पत्थर का कलेजा होकर वो पानी में आग लगाते हैं
तब उन्हें दिन में ही तारे दिखाई देने लग जाते हैं
कभी-कभी हम जानते हुए भी काठ में पांव रख जाते हैं
और वो करके बदमाशियां सिर पर पांव रख भाग जाते हैं,
वो हथेली में सरसों जमाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं,
और हम यूं ही उनकी बातों में आकर हाथों-हाथ बिक जाते हैं
©अभिषेक श्रीवास्तव “शिवाजी”