मुहब्बत सचमें ही थी।
कुछ कमियां मुझमें भी थी।
कुछ कमियां तुझमें भी थी।।
इश्क के सच्चे वादों में,
कुछ तेरी तो कुछ मेरी,
झूठी कसमें भी थी।।
ना तुम बेवफा थे।
ना हम बेवफा थे।।
मुकम्मल इश्क ना हुआ,
क्योंकि इस जहां की,
कुछ अंधी रसमें भी थी।।
लिखने को तो हम भी लिख देते।
और तू हो भी जाता बदनाम।।
पर आज खुश है तू,
क्योंकि शायरी मेरी,
मेरे लफ्जों के हदमें ही थी।।
जब तक तू था पास।
सब कुछ ही था खास।।
ना तुम हमें भूल सके,
ना हम तुम्हे भूल सके,
क्योंकि मुहब्बत सचमें ही थी।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ