मुहब्बत इक इबादत है
ज़रूरी दिल की चाहत है मुहब्बत इक इबादत है ।
मगर सदियों से दुनिया में ज़माने से बगावत है ।
तमन्ना आज भी दिल में कि दिलबर कोई मिल जाए ।
खुले रख्खे हैं दरवाज़े अग़र उनकी इनायत है ।
बुझा-सा एक दीपक हूँ अँधेरों में थका-हारा ।
नहीं दरकार है उनको ख़ुदा कैसी क़यामत है ।
लिये उम्मीद जलता हूँ कि रोशन हो जहां उनका ।
है सच्ची आरज़ू दिल की नहीं इसमें तिज़ारत है ।
बसी इंसानियत दिल में ग़रीबों की धरोहर है ।
यही ‘अंजान’ की दौलत नहीं कोई हिमाक़त है ।
दीपक चौबे ‘अंजान’