मुहब्बते-पैगाम लिख रहा हूँ
ग़ज़ल
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मुहब्बते-पैगाम लिख रहा हूँ
ढ़लती हुई हर शाम को लिख रहा हूँ,
मैं हर बात बस आम को लिख रहा हूँ।
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कोई शोख से तो, कोई ग़म में पीते है
मैं छलकते उस जाम को लिख रहा हूँ।
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जलता है कोई बिन आग के क्या करे,
मैं खत फ़कत निजाम को लिख रहा हूँ।
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कोई लाख छिपाऐ जुर्म अपना बेसक,
मैं उस के हर इल्जाम को लिख रहा हूँ।
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छल,कपट, मक्कारी सब देखी उसकी,
मै,उस के अब अंजाम को लिख रहा हूँ।
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तुम ना सोचो “जैदि” क्या लिखता हूँ मैं,
मैं बस मुहब्बते-पैगाम को लिख रहा हूँ।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”