मुस्लिमों को ‘कोरोना का पर्याय’बताना गलत
लोकतंत्र के चार अहम स्तंभ होते हैं-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया. लेकिन कुछ समय से देखा जा रहा है कि केवल कार्यपालिका ही अपना काम कर रही है, मीडिया तो सत्ता अर्थात कार्यपालिका के सेवक और प्रचारक की भूमिका में है. संसद फिलहाल स्थगित है और न्यायपालिका अचेत अवस्था में. विपक्ष कुछ बोलता है तो उसे ‘खलनायक’ और ‘देशद्रोही’ की शक्ल में पेश कर दिया जाता है. नतीजा यह कि कार्यपालिका अर्थात सत्तापक्ष को देश का कामकाज चलाने या उसे बिगाड़ने के लिए खुला हाथ मिला हुआ है. हालांकि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सरकार देश को बर्बाद करने पर तुली हुई है. दुनिया के समूचे देशों की तरह हम भी इस समय सबसे बड़ी महामारी कोरोना के साथ-साथ आर्थिक चुनौती का सामना कर रहे हैं. हमारी सरकार कोरोना से मुकाबले के लिए प्रयासरत भी है लेकिन उनके प्रयास का एक दूसरा पहलू भी है जिसकी आलोचना होनी चाहिए. कथित भक्तनुमा लोग कह सकते हैं कि ऐसे दौर में आलोचना ठीक नहीं लेकिन यह न भूलें कि आलोचना भी सरकार के लिए दिशादर्शक हो सकती है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो कई बुरी बातें और काम बेरोक-टोक चलते रहेंगे. एक स्वस्थ देश और सरकार के लिए जरूरी है कि उसके सभी अंग पूरी ताकत से काम करें.
क्या आपको नहीं लगता कि लाखों नागरिकों की ताजा मुसीबतों के इस दौर में दो मजबूत अंग-संसद और न्यायपालिका लगभग चुपचाप से बैठे हैं. मीडिया सिर्फ चाटुकारिता और नफरत का एजेंडा सैट कर सत्तापक्ष की मौजूदा और आगामी राजनीतिक राह को आसान बनाने में जुटा है? कोरोना के चलते इस लॉकडाउन में मजदूरों, गरीबों, निचले वर्ग और किसानों को लगभग खुद के ही भरोसे छोड़ दिया गया है. पक्षपातपूर्ण ढंग से प्रवासी भारतीय, धनाढ्य परिवारों के बच्चों, मजदूरों, हिंदू तीर्थयात्रियों और अन्य धर्मावलंबियों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार हो रहा है?
भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह मुस्लिमों की हालत देखिए. देश का गोदी मीडिया और देश के कथित अंध देशभक्तों ने उनकी स्वास्थ्य समस्या को भी ‘आपराधिक’ रंग दे दिया है. उन्हें कोरोना के पर्यायवाची की तरह पेश किया जा रहा है. एक विदेशी वायरस कोविड-19 का देश में प्रवेश क्या उनकी गलती थी? चीन ने 23 जनवरी को ही वुहान में महामारी का ऐलान कर दिया था. डब्ल्यूएचओ अर्थात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 31 जनवरी को ही इसे ‘वैश्विक महामारी’ घोषित कर दिया था फिर उसी वक्त यह सुनिश्चित किया जाना था कि विदेश से आ रहे लोगों को या तो प्रवेश ही नहीं दिया जाता या यहां लोगों से मिलने-जुलने (दिल्ली के मरकज सहित) से पहले कम से कम 14 दिन के अनिवार्य क्वारंटाइन में रखा जाता. माननीय प्रधानसेवक मोदी जी ने खुद तो होली नहीं मनाई लेकिन देश को होली मनाने दी. विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आयोजन 18-19 मार्च तक होते रहे. इसके बाद केवल चंद घंटों के नोटिस पर लॉकडाउन लगा दिया गया. हर तरह का परिवहन बंद कर दिया गया. ऐसे में जमात के लोग जाते तो कैसे और कहां?, सरकार ने खुद उनकी व्यवस्था क्यों नहीं की, कुछ बदहवासी में इधर-उधर भागे तो उन्हें इस महामारी के दौर में ‘खलनायक’ या कोरोना महामारी के पर्याय साबित करने में तुले हुए हैं. कोरोना से भी कहीं अधिक खतरनाक तो नफरत का वायरस है क्योंकि इसी नफरता के वायरस ने फरवरी महीने में 50 से भी अधिक लोगों की जान ले चुका है. कोरोना संक्रमित सिर्फ मुस्लिम नहीं हैं, अन्य वर्ग के लोग भी हैं, उनकी पहचान भी मीडिया को बतानी चाहिए. मैं स्वयं हिंदू हूं लेकिन इस दौर में मुस्लिमों को एक जाहिल, खलनायक और कोरोना के पर्याय की तरह पेश करने पर बहुत दुखित हूं.
-20 अप्रैल 2020, सोमवार