मुस्करना ज़िन्दगी है
इस तरह की जिन्दगी को क्यों भला मैं जी रहा हु
जानते हो क्या मिलेगा इस तरह की सादगी में
क्या कभी गुलशन खिलेगें इन विरानी वादगी में
जानते हो जिन्दगी इक जंग है मैं जी रहा हु
हो तुम्हें अमृत मुबारक ये गरल मैं पी रहा हु
सादगी का जाम पीकर तृप्त हु प्यासा नहीं हु
मैं स्वयं की सौम्यता हु मंच की भाषा नहीं हु
राग रस में डूबना क्या जिन्दगी का लक्ष्य होगा
क्या नहीं प्राचीनतम् परिधान का परिपक्ष होगा
क्या विषम ज्वाला जलाती ही रहेगी बस्तियों को
क्या कभी ये छू सकेगी इन महल की मस्तियों को
क्या कभी इन्शान में इन्शानियत का भान होगा
क्या कभी वो कर्म से ईमान से इन्शान होगा
स्नेह के धागों में मैं स्वजनों के रिश्ते सी रहा हु
मुस्करना ज़िन्दगी है मुस्कराकर जी रहा हु