मुश्किल वक़्त (प्रतिनिधि कहानी)
चिलचिलाती धूप ने नौ बजे के समय को ऐसा बना दिया है कि मानो जेठ की दोपहरी का वक़्त हो। ऊपर से वातावरण में उमस। हवा का कहीं नामोनिशान नहीं। जो पसीना निकल रहा है। उससे कपड़े चिपचिपे से हो गए हैं। घर के भीतर कूलर-पँखे भी कक्ष को ठण्डा रख पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं। इक्का-दुक्का लोग-बाग ही गली में आते-जाते दिखाई दे रहे हैं। बेचारे जो मज़दूर हैं, मजबूरीवश बेरहम मौसम की मार सहते हुए भी काम करने को विवश हैं।
“अरे लखनवा, मैं कई दिनों से देख रहा हूँ। तुम जितना कमाते हो। उसे खाने-पीने में खर्च कर देते हो। कुछ भी भविष्य के लिए बचाकर नहीं रखते!” फावड़े से गड्ढ़े की मिटटी निकालते हुए साथी मज़दूर राम आसरे ने मुझसे कहा।
मैं मुस्कुरा दिया, “ज़रा तसला उठाने में मेरी मदद करो, राम भाई।” मैंने उसके सवाल का जवाब देने की जगह, उससे मिटटी भरा तसला उठाने में सहयोग करने को कहा।
पूर्व की भांति मिटटी भरा तसला सर पर उठाये मैं मकान के पीछे खाली प्लाट में उसे पुनः खाली कर आया था। जहाँ अब गड्ढ़े से निकाली गई मिटटी का ऊँचा ढेर लग गया था। थकावट और पसीने से चूर मैंने ख़ाली तसला भरने के लिए पुनः राम आसरे के सामने फेंका। सुस्ताने ही लगा था कि तभी मालिक मकान की दयालू पत्नी चाय-बिस्कुट लेकर आ गई।
“लो भइया चाय पी लो।” मालकिन ने चाय-बिस्कुट की ट्रे मेरे आगे फर्श पर रखते हुए कहा।
“भगवान आपका भला करे मालकिन।” मैंने मुस्कुराकर कहा, “थोड़ा फ्रिज का ठंडा पानी मिल जाता।”
“हाँ मैं लेके आती हूँ।” कहकर वह भीतर गई। कुछ देर बाद वह पानी की ठंडी बोतल के साथ पुनः प्रकट हुई।
“लगता है आज भर में नीव की खुदाई का काम पूरा हो जायेगा। कल से ठेकेदार और मज़दूर लगा कर बुनियाद का काम चालू कर देगा।” पानी की बोतल थमाते हुए मालकिन ने मुझसे कहा।
“जी … आजभर में बुनियाद का काम पूरा हो जायेगा।” मैंने पानी की बोतल का ढक्कन खोलते हुए कहा। तत्पश्चात मालकिन भीतर चली गई।
ठंडा पानी पीकर मेरे शरीर में प्राण लौटे। राम आसरे भी फावड़ा वहीँ छोड़ मेरे पास आ गया। हम दोनों मज़दूर भाई अब चाय-बिस्कुट का लुत्फ़ लेने लगे।
“तुम हमरी बात के उत्तर नहीं दिए लखन भाई। आने वाले मुश्किल बख़्त की ख़ातिर पैसा काहे नहीं बचाते।” राम आसरे ने श्वान की भांति ‘चप-चप’ करके बिस्कुट चबाते हुए पुरबिया मिश्रित हिंदी में कहा।
“तुम अच्छा मज़ाक कर लेते हो राम भाई। भला मज़दूर की ज़िंदगी में कोई अच्छा वक्त है। उसके लिए तो सब दिन ही मुश्किल भरे हैं।” मैंने ठहाका लगाते हुए कहा, “इसी बात पर एक शेर सुनो– आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं। सामान सौ बरस का है, पल की ख़बर नहीं।” मैंने एक अति-प्रसिद्ध शेर पढ़ा था। पता नहीं राम आसरे उसका अर्थ समझा भी था या उसके सर के ऊपर से सब गुज़र गया। दोनों चुपचाप चाय पीने लगे। इस बीच हलकी-सी चुप्पी वातावरण में पसर गई थी। घर के अंदर से आती टीवी की आवाज़ इस चुप्पी को भंग कर रही थी। मालकिन टीवी पर कोई सीरियल देख रही थी।
“टीवी और बीवी अपन के नसीब में नहीं है! लखन भाई।” राम आसरे ने किस्मत को कोसते हुए कहा, “बस फावड़ा, गैती और तसला ही अपना मुकद्दर है।” राम आसरे ने मेरे कहे शेर पर तो कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की मगर मालकिन के टीवी की आवाज़ सुनकर वह यह सब बोला।
“सामने ऊँची बिल्डिंग देख रहे हो राम भाई। कभी गए हो उसमे।” मैंने आठ मंज़िला ईमारत की ओर इशारा किया।
“हाँ कई बार! लिफ़्ट से भी और ज़ीना चढ़कर भी।” राम आसरे ने अगला बिस्कुट चाय में डुबोया और एक सैकेंड में अजगर की तरह मुंह से निगल लिया।
“राम भाई, अगर कमाई की रफ़्तार की बात करूँ तो वह सीढ़ी से धीरे-धीरे चढ़ने जैसा है। जबकि महंगाई लिफ़्ट की रफ़्तार से निरंतर भाग रही है। हम कितना भी चाह लें। कितना भी कर लें। हमारे सारे उपाय मंहगाई की रफ़्तार को पकड़ने के लिए निरर्थक होंगे।”
“फिर भी बीमार पड गए तो क्या होगा?” राम आसरे ने मेरी ओर प्रश्न उछाला।
“बीमार पड़ गए तो वही होगा जो मंज़ूर-ए-खुदा होगा।” मैंने उसी टोन में कहा, “तुम्हे एक किस्सा सुनाता हूँ। तनिक बीड़ी तो सुलगा लो। काफ़ी तलब लगा है।”
मैंने फ़रमाईश की थी कि राम आसरे ने तपाक से दो बीड़ियाँ सुलगा लीं। शायद मुझसे ज़्यादा धूम्रपान की आवश्यकता उसको थी। दोनों कस खींचने लगे।
धुआँ उड़ाते हुए मैंने कहा, “जापान देश में एक भिखारी था। यह सच्ची घटना लगभग तीस वर्ष पुरानी है। मैंने समाचार पत्र मैंने कहीं पढ़ा था। जापान के उस भिखारी का बैंक एकाउंट भी था। जो पूरी ज़िन्दगी भीख में मिले पैसे को ज़मा करता रहा। ये सोचकर की बुढ़ापे में जब वह कुछ करने लायक नहीं रहेगा। तब वह ज़मा पूंजी को खायेगा। अच्छे दिनों की मिथ्या कल्पना में रुखा-सूखा खाकर उसने अपना पूरा जीवन गुज़ार दिया। अलबत्ता उसका बैंक बैलेन्स काफ़ी बढ़ता रहा।”
“वाह बड़ा मज़ेदार किस्सा है लखन भाई।” राम आसरे बीड़ी फूंकते हुए बोला, “भिखारी भी भीख का पैसा बैंक में रखता था।”
“जानते हो साठ साल की उम्र में उसकी मृत्यु कैसे हुई?”
“नहीं!”
“सूखी रोटी को पानी भिगो कर खाते हुए जैसा कि वह पिछले चालीस वर्षों से कर रहा था।” बीड़ी का धुआँ राम आसरे के चेहरे पर छोड़ते हुए मैंने कहा, “जानते हो उसके बैंक एकाउंट में कितना पैसा था!”
“कितना!” कहते हुए राम आसरे का मुंह खुला का खुला रह गया।
“इतना पैसा कि वह दिन-रात अच्छे से अच्छा भोजन भी खाता तो अगले बीस-तीस वर्षों तक उसका पैसा ख़त्म नहीं होता। लेकिन दुर्भाग्य देखिये अंतिम दिन भी भीख मांगते हुए, सूखी रोटी को पानी से डुबोकर खाते हुए उसकी मृत्यु हुई।” कहकर मैंने पुनः बीड़ी का कस खींचा।
“ओह, बहुत बुरा हुआ उसके साथ। बेचारा सारी उम्र ज़मा करता रहा मगर एक भी पैसे को खा न सका।” राम आसरे ने ऐसे संवेदना व्यक्त की, जैसे वह खुद वह भिखारी हो।
“कमोवेश हम सब भी जापान के भिखारी जैसा ही जीवन जीते हैं। भविष्य की सुखद कल्पना में अपने वर्तमान को गला देते हैं। हमारी मौत भी किसी दिन फुटपाथ पर सूखी रोटी को पानी से निगलते हुए होगी।”
“तो क्या बचत करना गुनाह है?” राम आसरे ने ऊँची आवाज़ में कहा।
“अरे जो खाते-पीते आसानी से बच जाये। वह बचत होती है न कि शरीर को गला-गलाकर बचाने से।” मैंने गमछे से अपने माथे का पसीना पोछते हुए कहा।
“सही कहते हो लखन भाई।” राम आसरे ने सहमति जताई और बुझी बीड़ी को नीचे फैंक कर चप्पल से मसल दिया।
“इतना जान लो राम भाई। भरपूर मेहनत के बावजूद मज़दूर को एक चौथाई रोटी ही नसीब है। जबकि उसे एक रोटी की भूख है। यदि अच्छे से खाएंगे-पिएंगे नहीं तो हमारा मेहनत-मसकत वाला काम ही, हमारा काम तमाम कर देगा।” कहकर मैंने बीड़ी का आखिरी कस खींचा और बची हुई बीड़ी को एक तरफ फैंक दिया ये कहकर, “चलो बाक़ी का बचा काम भी जल्दी ही निपटा डालें। आज की दिहाड़ी मिले तो चिकन…।” इतना कहकर मैं पलटा ही था कि दीवार की ओंट से निकलकर ठेकेदार दीनदयाल हमारे सम्मुख आ खड़ा हुआ।
“ओह! तो ये काम चल रहा है, तुम दोनों का!” ठेकेदार दीनदयाल कड़क आवाज़ में बोला।
“नमस्कार, आप कब आये ठेकेदार जी?” मैंने सम्भलते हुए कहा।
“जब तू रामआसरे को जापानी भिखारी की कहानी सुना रहा था।” दीनदयाल उसी रौब में था।
“नहीं ठेकेदार जी, दो मिनट सुस्ताने के लिए बैठे थे। चाय पीते हुए थोड़ी गपशप चल रही थी।” मैंने सफ़ाई दी।
“ख़ुद ही देख लीजिये दीनदयाल जी, आज सुबह से घण्टेभर में कितनी सारी मिटटी खोदी है।” रामआसरे ने विन्रम स्वर में बीच-बचाव करते हुए कहा।
“बहुत पर निकल आये हैं तुम दोनों के।” दीनदयाल बोले, “एकाद महीना घर बैठा दूंगा तो भूखे मरोगे। फिर जापान के भिखारी की तरह खाना सूखी ब्रेड पानी में भिगो कर।” दीनदयाल बोला, “आज सारी नीव न खुदी तो दियाड़ी तो मिलने से रही। पिछली दियाड़ी भी नहीं दूंगा। तुम दोनों रोज़ ही बातों में अपना टाइम पास करते हो। तभी तो हफ़्तेभर में भी नींव की खुदाई ख़त्म नहीं कर पाए।”
“आज आपकी बाइक नहीं दिखाई दे रही है।” मैंने यूँ ही पूछ लिया, “क्या ख़राब हो गयी है?”
“ख़राब नहीं हुई बेटा, मैंने जानबूझकर गली के बाहर खड़ी की है। ताकि दबे पाँव आकर पता कर सकूँ कि तुम दोनों हरामख़ोर काम कर रहे हो या कहीं गप्पों में ही लीन रहते हो।” दीनदयाल की अकड़ बरक़रार थी।
“आओ ठेकेदार जी अंदर आ जाओ।” शोर-शराबा सुनकर मेमसाहब ने गेट खोला तो सामने ठेकेदार को देखकर बोली, “आप भी चाय पी लो।”
“नहीं बहन जी, अभी बिल्डर के पास भी जाना है।” दीनदयाल ने भीतर आने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर की, “सीमेन्ट-सरिया महंगा होने वाला है, इसलिए आज ही ख़रीदना पड़ेगा।” फिर हमारी तरफ़ देखकर दीनदयाल मेमसाहब से पूछने लगा, “बहनजी, ये दोनों काम काज तो ठीक-ठाक कर रहे हैं न!”
“हाँ भइया, दोनों काफ़ी मेहनती हैं।” मेमसाहब ने रामआसरे और मेरी तरफ़ देखकर जवाब दिया। हमने आँखों से ही मेमसाहब का आभार व्यक्त किया।
“अच्छा मैं चलता हूँ।” कहकर दीनदयाल बिना एक पल गंवाए वहां से निकल गया। पुनः गेट बंद करके मेमसाहब अंदर टीवी देखने में व्यस्त हो गई। गली फिर से सुनसान हो गई। फिर से राम आसरे के फावड़े चलाने की आवाज़ सुनाई देने लगी।
“इतना करने के बावज़ूद भी कितना सुनना पड़ता है।” फावड़ा रोककर राम आसरे से तनिक सांस लेते हुए कहा, “थू है ऐसी ज़िन्दगी पर।”
“कोई बात नहीं राम भाई!” मैंने ढांढस बंधाया, “अच्छा हो या बुरा, वक़्त सभी का कट ही जाता है। हमें जापान का भिखारी बनाएगा स्साला दीनदयाल। ख़ुद सूखी रोटियाँ खाकर वक़्त गुज़ार रहा है। सारा पैसा प्रॉपर्टी पर लगा रहा है। औलाद है नहीं स्साले की। कल को मर जायेगा तो नौकर-चाकर ऐश करेंगे स्साले की प्रॉपर्टी पर।” मैंने अपनी भड़ास निकली।
“लखन भाई, स्साला ग़रीबों का शोषण करता है। हमारी दियाड़ी काटेगा, एक दिन कीड़े लग-लगके मरेगा।” राम आसरे ने भी अपनी भड़ास निकालते हुए कहा और टपकते पसीने के बावज़ूद तेज़-तेज़ फावड़ा चलाने लगा।