” मुशाफिर हूँ “
निकल पड़ा हूँ, मंज़िल की तलाश में,
जाना किस ओर है पता नहीं,
साधन तो बहुत है, यात्रा करने के लिए,
पर सवार हो जाऊँ किसमें ये पता नहीं।
मिलते हैं हमसफर जिन्दगी में,
कौन अजनबी है पता नहीं।
चल रहे हैं, हमसफर बनकर साथ,
चार कदम यूं ही,
छूट जाएँगे कब तन्हा अकेला पता नहीं।
यूं तो अकेले दिन गुजर जाते हैं,
रात कैसे गुजारूं पता नहीं।
निकल जाता हूँ, सुबह मंज़िल की तलाश में,
शाम को हिसाब लगाता हूँ, क्या मिला कुछ पता नहीं।
मुशाफिर हूँ,
अगर खो जाऊँ इन राहों में,
गर मंजिल न मिले,
इसमें मेरी खता नहीं।
“पुष्पराज फूलदास अनंत”