मुर्दा समाज
फिर एक चित्कार गूंज उठी
फिर शून्य से टकराकर लौटी
एक दरिंदे का वहशीपन देखा
देखी दुनिया की चाल मुखौटी
वार पर वार बेरहमी अत्याचार
पर दुनिया के कान पर जूँ न रेंगी
सब देख कर बेअसर रहे गुज़र
ये कैसा समाज ये कैसे ढोंगी
आँखों में लिए आस एक गुहार
नज़र किसी से तो टकराई होगी
दर्द के सैलाब में चीखती आँखें
उन कायरों पर भी छलकी होगी
गुजरते बेजान पुतलों की खामोशी
सन्नाटों को चीरती उसकी आवाज
चाकू ने तो बस दिल चीरा होगा
सौ बार मरी होगी देख मुर्दा समाज
एक घटना ने दहला दिया। अंतस् को झकझोर दिया।कवि कैसे रहे चुप?और क्या चुप रहना उचित होगा?तो बस कलम बोल पड़ी …..
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया