मुराद
मेरा भी मन करता है
कि मैं ऑफिस जाऊं ,
कोई मेरे लिए टिफिन बनाए
और मैं स्वाद लेकर खाऊं ,
मेरे पीछे भी कोई
दरवाज़े तक दौड़ा आए ,
कुछ सेकेंड की देरी के लिए
लगातार साॅरी की रट लगवाऊं ,
मैं भी ऑंखें तरेरकर
हाथ से पानी की बोतल छिनती
मुंह पर दरवाज़ा बंद करके
धड़धड़ाती सीढियां उतरती जाऊं ,
शाम को वापस घर लौटने पर
अपनी थकान का ठीकरा उसके सर फोड़ूं
टीवी के सामने पसर कर
मज़े से चाय-नाश्ता खाऊं ,
अपनी पसंद का डिनर बनवाकर
जानबूझकर कमी निकालूं
उसको ग्लानि से भरवाकर
फिर खाना खाने आऊं ,
घर में मेहमानों के आने पर
ख़ुद को इतना व्यस्त बताऊं
इसको और काम ही क्या है
हर बात में ये जताऊं ,
इस जनम में ना सही
अगले जनम में ये मुराद पाऊं
ऐसे नामुरादों को ना बख़्शू
वो स्त्री और मैं पुरुष बन पाऊं ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )