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18 Jun 2023 · 3 min read

#मुरकियाँ

★ #मुरकियाँ ★

मेरी दादी जी जिन्हें हम बेबे जी कहा करते थे सुंदर महिला थीं। मेरी माताजी की तरह। मेरी पत्नी की तरह। मेरी तीनों बहनों में सबसे छोटी है न उषा, वो कुछ-कुछ दिखती है दादी जैसी।

दादी के कानों में मुरकियां थीं, सोलह। दोनों कानों में आठ-आठ। मैं समझ नहीं पाता था कि मुरकियाँ पहनकर दादी अधिक सुंदर दिखती हैं अथवा दादी के कानों से लटककर वे सुंदर हो जाती हैं।

लालाजी अर्थात मेरे दादाजी कहते थे कि हमारे संस्कार हमारी मुरकियाँ हैं। उनसे हमारी शोभा है और वे हमारी सांसों का आधार भी हैं। जिस दिन हम संस्कारहीन हो जाएंगे श्रीहीन हो जाएंगे। मर जाएंगे।

यह उन दिनों की बात है जब मेरे पिताजी रेलवे पुलिस के सरहिंद थाना में पदस्थापित थे। हम सब भाई-बहन तो पिताजी के साथ थे परंतु, लालाजी व बेबेजी चाचाजी के साथ गाँव में थे।

एक दिन दोपहर के समय एक स्त्री-पुरुष दादी के पास आए और बोले, “माई, हमने रोटी खानी है थोड़ी लस्सी मिलेगी?”

दादी ने उन्हें लस्सी के साथ ही अचार और प्याज भी दिया। उन्होंने वहीं दरवाजे के पास ही बैठकर रोटी खायी और आशीर्वचन बोलते हुए चले गए।

संध्या समय लालाजी को पता चला तो उन्होंने चेताया कि “भाग्यवान यह फिरंगी भी यहाँ रोटी खाने के बहाने ही आए थे। और परिणाम देख लो आज हम उजड़कर जेहलम नदी से मारकंडा किनारे आ बैठे हैं।”

उसी रात खुले आँगन में लालाजी व बेबे जी अपनी-अपनी चारपाइयों पर और थोड़ी दूर मेरे चाचाजी व चाचीजी अपनी-अपनी चारपाइयों पर सो रहे थे। बेबे जी को कुछ खटका हुआ तो वे उठकर बैठ गईं। देखा तो लालाजी की चारपाई के समीप एक व्यक्ति हाथ में लाठी लिए खड़ा है। दृष्टि तनिक घुमाई तो देखा कि एक-एक व्यक्ति चाचाजी व चाचाजी की चारपाई के समीप भी लाठी लिए खड़ा है। इससे पहले कि वे कुछ समझतीं अथवा बोलतीं उनके सिरहाने की ओर बैठे एक व्यक्ति ने उनकी गर्दन पर अपने अंगूठे टिकाकर दोनों कानों की मुरकियों को अंगुलियों में फंसाकर इतनी जोर से झटका दिया कि मुरकियाँ बेबे जी के कानों को रक्तरंजित करते हुए लुटेरे के हाथों में पहुंच गईं। बेबे जी की चीख सुनकर लालाजी, चाचाजी और चाचीजी ने ज्यों ही उठने का प्रयत्न किया उनके घुटनों पर लाठी का ऐसा तगड़ा प्रहार हुआ कि उठना तो दूर वे बैठे भी न रह सके। लुटेरे दीवार फांदकर ये जा और वो जा।

चीख-पुकार सुनकर पूरे गाँव में जाग हो गई। हमारी पिछली तरफ रहने वाला दयाला गली में सोया था। उसके पास से लुटेरे निकले तो वो उनके पीछे भागा। एक लुटेरा रुक गया। दयाले के समीप आते ही उसके घुटनों पर लाठी का ऐसा तगड़ा प्रहार हुआ कि बेचारा वहीं लुढ़क गया।

कुछ समय बाद मेरे पिताजी को अंबाला पुलिस से बुलावा आया कि लुटेरे पकड़े गए हैं और उनसे जो माल मिला है उसमें मुरकियाँ भी हैं। आप आइए और अपना सामान ले जाइए। पिताजी वहाँ पहुंचे तो देखा कि मुरकियाँ तो पूरी सोलह ही हैं लेकिन हमारे वाली नहीं हैं। उन्होंने लेने से मना कर दिया।

थानाध्यक्ष ने कहा कि “आपकी मुरकियाँ चोरी तो हुई हैं और वे भी सोलह ही थीं तो इन्हें लेने में आपको क्या समस्या है?”

पिताजी ने उत्तर दिया कि जिसकी यह मुरकियाँ हैं उसे भी उतना ही दु:ख हुआ होगा जितना हमें हुआ। मैं इन्हें लेकर न तो उनके मन को दु:ख देकर पाप का भागी बनना चाहता हूँ और न ही मेरा मन उन लुटेरों का साथी होना चाहता है।”

मैं उन्हीं देवतास्वरूप महामानव का पुत्र हूँ। यदि भूलचूक से भी किसी की मुरकियाँ मेरे घर आ गई हों तो नि:संकोच कहें। मैं भूलसुधार को तत्पर हूँ।

#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२

Language: Hindi
166 Views
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