Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
27 May 2021 · 7 min read

मुंशी नाम उधार का

मुंशी नाम उधार का
आलेख : महावीर उत्तरांचली

प्रेमचन्द भी छदम था, असली धनपत राय
मुंशी नाम उधार का, ‘हंस’ से थे वो पाय

दोहे का अर्थ समझने के लिए आपको ये पूरा आलेख पढ़ना पड़ेगा। फिलहाल नबाब राय से धनपत राय। फिर धनपत राय से प्रेमचन्द…. और फिर जीवन के अन्तिम दशक में प्रेमचन्द से मुंशी प्रेमचन्द। इनके नामकरण का ये सिलसिला ताउम्र चलता रहा। जानिए साहित्य सम्राट प्रेमचन्द जी की ‘मुंशी’ बनने की कहानी लेकिन उससे पूर्व उनकी जीवनी और कुछ अन्य बातें भी हम इस लेख के माध्यम से जान लें।

प्रेमचन्द (जन्म: 31 जुलाई 1880 ई.— मृत्यु: 8 अक्टूबर 1936 ई.) के सम्बन्ध में कुछ जानकारियाँ :— प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 ई. को लमही गाँव (वाराणसी) में हुआ था। उनकी माता आनन्दी देवी तथा पिता मुंशी अजायबराय थे। जो कि ग्राम लमही में ही डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ ग्रामीण विद्यालय में उर्दू और फ़ारसी भाषाओँ से हुआ और पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने ‘तिलिस्मे-होशरुबा’ पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकारों रत्ननाथ शरसार, मौलाना शरर और हादी रुस्वा जैसे अदीबों के उपन्‍यासों से रूबरू हो गए।

1898 ई. में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे पास के ही विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। 1910 ई. में उन्‍होंने इंटर पास किया और 1919 ई. में बी.ए. की डिग्री लेने के बाद अंग्रेज़ों के शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। मुंशी जी जब सात वर्ष की अवस्था में अपनी माता जी को और चौदह वर्ष की अवस्था में अपने पिता को खो बैठे तो उनके प्रारंभिक जीवन का संघर्ष आरम्भ हो गया। उनका प्रथम विवाह उनकी मर्जी के विरुद्ध पंद्रह साल की उम्र में हुआ, जो सफल नहीं रहा। उन दिनों प्रेमचंद पर आर्यसमाज का बड़ा प्रभाव था। जो स्वामी दयानन्द के बाद एक बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन बन गया था। अतः उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और वर्ष 1906 ई. में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से कर लिया। उनकी तीन संताने हुईं—श्रीपत राय, अमृत राय (जो स्वयं बहुत बड़े साहित्यकार हुए) और कमला देवी श्रीवास्तव।

प्रेमचंद ही आधुनिक हिन्दी कहानी के भीष्म पितामह माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 ई. से हो चुका था लेकिन उनकी पहली हिन्दी कहानी को छपने में चौदह वर्ष और लगे यानी महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संपादन में जब सरस्वती के दिसम्बर अंक 1915 ई. में “सौत” नाम से कहानी प्रकाशित हुई। उनकी अंतिम कहानी “कफ़न” थी। जो उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी कही जाती है। इन बीस-इक्कीस वर्षों की अवधि में उनकी कहानियों में अनेक रंग-ढंग पाठकों को देखने को मिलते हैं। प्रेमचन्द युग से पूर्व हिंदी में काल्पनिक एय्यारी (चन्द्रकान्ता—देवकीनन्द खत्री) और पौराणिक धार्मिक रचनाएं (रामायण, महाभारत अथवा संस्कृत साहित्य की हिन्दी में अनुदित कृतियाँ पंचतन्त्र, हितोपदेश, कालिदास, भास आदि के नाटक) आदि ही मनोरंजन का अच्छा माध्यम थे। प्रेमचंद ही विशुद्ध रूप से प्रथम साहित्यकार थे जिन्होंने हिंदी के लेखन में मौलिक यथार्थवाद की शुरूआत की।

यहाँ प्रेमचन्द के यशस्वी साहित्यकार पुत्र अमृतराय की बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है। कलम का सिपाही (प्रेमचंद की जीवनी) में उन्होंने लिखा है कि “संयोग से बनारस के पास ही चुनार के एक स्कूल में पिताजी को मास्टरी मिल गई। लगभग दो दशक तक वे मास्टर रहे। इसी मास्टरगिरी के चलते प्रेमचंद को घाट-घाट का पानी पीना पड़ा। कुछ-कुछ बरस में यहाँ से वहाँ तबादले होते रहे—प्रतापगढ़ से, इलाहबाद से, कानपुर से, हमीरपुर से, बस्ती से, गोरखपुर से। इन सब स्थान परिवर्तनों से शरीर को कष्ट तो हुआ ही होगा और सच तो यह है कि इसी जगह-जगह के पानी ने उन्हें पेचिश की दायमी बीमारी दे दी, जिससे उन्हें फिर कभी छुटकारा नहीं मिला, लेकिन कभी-कभी लगता है कि ये कुछ-कुछ बरसों में हवा-पानी का बदलना, नए-नए लोगों के सम्पर्क में आना, नयी-नयी जीवन स्थितियों से होकर गुज़रना, कभी घोड़े और कभी बैलगाड़ी पर गाँव-गाँव घूमते हुए प्राइमरी स्कूलों का मुआयना करने के सिलसिले में अपने देशकाल के जन-जीवन को गहराई में पैठकर देखना, नयी-नयी सामाजिक समस्याओं और उनके नए-नए रूपों से रूबरू होना, उनके लिए रचनाकार के नाते एक बहुत बड़ा वरदान भी था। दूसरे किसी आदमी को यह दर-दर का भटकना शायद भटका भी सकता था पर मुंशीजी का अपनी साहित्य सर्जना के प्रति जैसा अनुशासन, समर्पण आरम्भ से ही था, यह अनुभव सम्पदा निश्चय ही उनके लिए अत्यंत मूल्यवान सिद्ध हुई होगी।”

आमतौर पर लोगों का भ्रम है कि कायस्थ परिवार में जन्म लेने के कारण धनपत राय के छद्म नाम प्रेमचन्द के पीछे मुंशी अपने आप जुड़ गया। यह हक़ीक़त नहीं है। दरअसल प्रेमचन्द का मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। जिससे अमूमन सभी पाठकगण भलीभांति परिचित हैं। जबकि शुरुआती दौर में जब इन्होंने उर्दू में लेखन का सृजन किया तो अपनी रचनाओं में अपना नाम ‘नवाब राय’ रखा। बाद में धनपत राय से लिखते रहे। प्रेमचन्द नाम क्यों धरा, यह घटना आगे स्पष्ट हो जाएगी।

हुआ यूँ धनपत राय को “सोजे-वतन” (प्रथम कहानी संग्रह) के लिए हमीरपुर (उ०प्र०) के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगा। “सोजे-वतन” की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। तत्पश्चात कलेक्टर ने धनपतराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो … (बड़ी-बड़ी आँखें दिखाते हुए कलेक्टर ने कहा) जेल भेज दिया जाएगा। तब उर्दू में प्रकाशित होने वाली बहुचर्चित पत्रिका “ज़माना” के सम्पादक मुंशी दयानारायण ‘निगम’ ने उन्हें प्रेमचंद (छद्म) नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद तो इस नाम ने वह ख्याति पाई कि लोग धनपत राय को भूल गए। याद रहा तो सिर्फ “प्रेमचन्द”। उन्‍होंने आरंभिक लेखन निगम साहब की पत्रिका में ही किया। नबाब राय से धनपत राय। फिर धनपत राय से प्रेमचन्द…. और फिर जीवन के अन्तिम दशक में प्रेमचन्द से मुंशी प्रेमचन्द। इनके नामकरण का ये सिलसिला ताउम्र चलता रहा।

इसके बाद प्रेमचंद के नाम के आगे मुंशी लगने की कहानी भी बड़ी ही दिलचस्प है। हुआ यूं​ कि प्रेमचन्द युग के ही एक अन्य मशहूर विद्वान साहित्यकार व नेता कन्हैयालाल माणिकलाल ‘मुंशी’ जी भी थे। जिनके मुंशी नाम से ही प्रेमचन्द ने ‘मुंशी’ नाम उधार लिया है या यूँ कहिये कि खुद-बी-खुद लोकप्रिय हो गया। बाद में सबने ही प्रेमचंद के आगे मुंशी लगाना शुरू कर दिया। दरअसल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की प्रेरणा से प्रेमचंद ने कन्हैयालाल माणिकलाल ‘मुंशी’ जी के सानिध्य में हिंदी पत्रिका निकाली। जिसका नामकरण हुआ ‘हंस’ नाम से। वर्तमान युग में 1985 ई. में साहित्यकार राजेन्द्र यादव जी ने इस पत्रिका को पुनः आरम्भ किया और ‘हंस’ आज भी हिन्दी की नम्बर वन साहित्यिक पत्रिका मानी जाती है। यह प्रेमचन्द के वक़्त में भी उतनी ही लोकप्रिय हुई, जितनी की राजेन्द्र यादव जी के सम्पादन में। ख़ैर अब तो राजेन्द्र जी को भी दिवंगत हुए एक अरसा हो चुका है मगर अब भी ‘हंस’ का सम्पादन कुशल हाथों में है। ख़ैर हम बात करेंगे सन 1930 ई. की। जब पत्रिका का संपादन के.एम. मुंशी और प्रेमचंद जी दोनों मिलकर किया करते थे। ध्यान रहे तब तक के.एम. मुंशी साहब देश की बड़ी हस्ती बन चुके थे, जबकि प्रेमचन्द का नाम एक साहित्यकार के रूप में ही हिन्दी-उर्दू में प्रसिद्ध था, मगर के.एम. मुंशी जी साहित्यकार व नेता होने के अलावा एक नामचीन वकील भी थे। उन्होंने तीनों भाषाओ (गुजराती; हिंदी व अंग्रेजी) में साहित्य सृजन किया, बल्कि उन्हें प्रेमचन्द से बड़ा लेखक भी माना जाता था।

मुंशी जी उस समय कांग्रेस पार्टी के क़द्दावर नेता के तौर पर स्थापित थे। उम्र में भी मुंशी जी, प्रेमचंद जी से करीब सात-आठ साल बड़े थे। इसी वरिष्ठता का ख्याल रखते हुए, तय हुआ कि ‘हंस’ पत्रिका में उनका नाम प्रेमचंद जी से पहले रखा जाएगा। अतः ”हंस’ पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर दोनों संपादकों का नाम क्रमश ‘मुंशी-प्रेमचंद’ नाम से छपने लगा। यह पत्रिका अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों का एक प्रमुख हथियार था। इस पत्रिका का मूल लक्ष्य राष्ट्र की विभिन्न सामाजिक, साहित्यिक व राजनीतिक समस्याओं पर गहन आत्म’चिंतन-मनन करना था ताकि भारतीय जनमानस को अंग्रेजी राज के ज़ुल्मों के विरुद्ध जाग्रत व प्रेरित किया जा सके। अतः इसमें अंग्रेजी सरकार के ग़लत कार्यों की खुलकर आलोचना होती थी। जैसा कि आज के दौर में भी देखा जा सकता है कि सरकार और बुद्धिजीवियों के मध्य द्वन्द्व अब भी ज़ारी है।

“चाँद” पत्रिका 1922 ई. के उपरान्त “हंस” हिन्दी पत्रिका की एक बड़ी और महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुई। “चाँद” पत्रिका के फाँसी अंक जिसके सम्पादक ‘आचार्य चतुरसेन शास्त्री’ थे, पर भी अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था। इधर “हंस” पत्रिका की दिनों-दिन बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजी सरकार मात्र दो वर्षों में ही तिलमिला गई थी। उसने प्रेस को जब्त करने का आदेश दिया। पत्रिका बीच में कुछ समय के लिए बंद हो गई और प्रेमचंद भारी क़र्ज़ में डूब गए, लेकिन भारतीय जनमानस के मस्तिष्क में “हंस” पत्रिका और इसके द्वय संपादक ‘मुंशी-प्रेमचंद’ का नाम भी खूब चढ़ गया। हंस ने प्रेमचन्द की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा दिया था। स्वतंत्र लेखन में प्रेमचंद पहले ही भारतवर्ष में बड़ा नाम बन चुके थे। हंस का कुशल सम्पादक होने के कारण उनकी किताबों को अब वो लोग भी बड़ी रूचि से पढ़ने लगे, जो पत्रिका को पढ़ते थे। सम्पादन करते-करते उनकी कहानियों में परिपक्वता का लेवल और बढ़ गया था। उपन्यास भी हर वर्ग के पाठकों के मध्य पहले ही लोकप्रिय थे। वहीं यदि गुजरात के के.एम. मुंशी जी का ज़िक्र करें तो ऐसा माना जाता है कि, नेता और बड़े विद्वान होने के बावजूद ठेठ हिंदी प्रदेश और देहात में प्रेमचंद की लोकप्रियता उनसे ज्यादा थी। अतः ऐसे में लोगों को यह ग़लतफ़हमी हो गई थी कि ‘मुंशी’ नाम भी प्रेमचंद जी का ही है, जबकि असल में उन्होंने तो प्रेमचन्द नाम ही अपनाया था और इसी नाम से उन्होंने साहित्य भी रचा मगर आज विश्वभर के समस्त साहित्य प्रेमियों के मध्य सभी उन्हें मुंशी प्रेमचन्द के नाम से ही जानते हैं तो इसमें हर्ज़ ही क्या है? यदि ‘सोजे वतन ‘की प्रतियाँ अंग्रेज़ सरकार ज़ब्त न करती तो सम्भवतः प्रेमचन्द नाम भी उन्हें नहीं मिलता और लोग उन्हें धनपत राय के नाम से ही जानते। वैसे भी विलियम शेक्सपियर ने भी कहा है:—’नाम में क्या रखा है?’

Language: Hindi
Tag: लेख
4 Likes · 6 Comments · 508 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
View all
You may also like:
“बचपन में जब पढ़ा करते थे ,
“बचपन में जब पढ़ा करते थे ,
Neeraj kumar Soni
मुलभुत प्रश्न
मुलभुत प्रश्न
Raju Gajbhiye
रुख के दुख
रुख के दुख
Santosh kumar Miri
कभी बारिश में जो भींगी बहुत थी
कभी बारिश में जो भींगी बहुत थी
Shweta Soni
*बरगद (बाल कविता)*
*बरगद (बाल कविता)*
Ravi Prakash
तुलना करके, दु:ख क्यों पाले
तुलना करके, दु:ख क्यों पाले
Dhirendra Singh
चाह नहीं मुझे , बनकर मैं नेता - व्यंग्य
चाह नहीं मुझे , बनकर मैं नेता - व्यंग्य
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
मेरी कविताएं पढ़ लेना
मेरी कविताएं पढ़ लेना
Satish Srijan
𝐓𝐨𝐱𝐢𝐜𝐢𝐭𝐲
𝐓𝐨𝐱𝐢𝐜𝐢𝐭𝐲
पूर्वार्थ
मन  के  दरवाजे पर  दस्तक  देकर  चला  गया।
मन के दरवाजे पर दस्तक देकर चला गया।
रामनाथ साहू 'ननकी' (छ.ग.)
रास्तो के पार जाना है
रास्तो के पार जाना है
Vaishaligoel
इंतजार युग बीत रहा
इंतजार युग बीत रहा
Sandeep Pande
दिल पागल, आँखें दीवानी
दिल पागल, आँखें दीवानी
Pratibha Pandey
शीर्षक - 'शिक्षा : गुणात्मक सुधार और पुनर्मूल्यांकन की महत्ती आवश्यकता'
शीर्षक - 'शिक्षा : गुणात्मक सुधार और पुनर्मूल्यांकन की महत्ती आवश्यकता'
ज्ञानीचोर ज्ञानीचोर
Dr Arun Kumar shastri
Dr Arun Kumar shastri
DR ARUN KUMAR SHASTRI
*गर्मी पर दोहा*
*गर्मी पर दोहा*
Dushyant Kumar
तू  फितरत ए  शैतां से कुछ जुदा तो नहीं है
तू फितरत ए शैतां से कुछ जुदा तो नहीं है
Dr Tabassum Jahan
4550.*पूर्णिका*
4550.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
कार्तिक पूर्णिमा  की शाम भगवान शिव की पावन नगरी काशी  की दिव
कार्तिक पूर्णिमा की शाम भगवान शिव की पावन नगरी काशी की दिव
Shashi kala vyas
जीवन की संगत में शामिल जब होती अभिलाषाओं की डोर
जीवन की संगत में शामिल जब होती अभिलाषाओं की डोर
©️ दामिनी नारायण सिंह
विश्व धरोहर हैं ये बालक,
विश्व धरोहर हैं ये बालक,
पंकज परिंदा
सब कुछ बदल गया,
सब कुछ बदल गया,
लक्ष्मी वर्मा प्रतीक्षा
ज़माना इतना बुरा कभी नहीं था
ज़माना इतना बुरा कभी नहीं था
shabina. Naaz
"दिमागी गुलामी"
Dr. Kishan tandon kranti
घनघोर अंधेरी रातों में
घनघोर अंधेरी रातों में
करन ''केसरा''
हसरतें बहुत हैं इस उदास शाम की
हसरतें बहुत हैं इस उदास शाम की
Abhinay Krishna Prajapati-.-(kavyash)
🥀*गुरु चरणों की धूलि*🥀
🥀*गुरु चरणों की धूलि*🥀
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
सीता के बूंदे
सीता के बूंदे
Shashi Mahajan
■ मिथक के विरुद्ध मेरी सोच :-
■ मिथक के विरुद्ध मेरी सोच :-
*प्रणय*
आखिरी मोहब्बत
आखिरी मोहब्बत
Shivkumar barman
Loading...