मुद्दा सुलझे रार मचाए बैठे हो।
मुद्दा सुलझे रार मचाए बैठे हो।
पर खुद को ही गांठ बनाए बैठे हो।
कैसे आगे बढ़कर तुमसे गले मिलें।
हाथों में हथियार उठाए बैठे हो।
गुल कैसे खिल पाएं कैसे खुशबू दें।
बगिया में जब आग लगाए बैठे हो।
कैसे तुमको मुतमईन कर सकता हूं।
अपनी असली मांग छुपाए बैठे हो।
कुहरा बहुत घना है शिकवा करते हो।
खुद रुत की मुस्कान चुराए बैठे हो।
तुमसे कुछ तकरार गुफ्तगू कैसे हो।
जब असली पहचान छुपाए बैठे हो।
हम पर तोहमत हम ज़ुबान के कच्चे हैं।
खुद अपना ईमान लुटाए बैठे हो।
जिन हाथों में डोरी उनसे चेहरा ले।
कठपुतली बन मान बढ़ाए बैठे हो।
जालिम हैं उनकी मिजाज़पुरसी कब तक।
क्यों नजरों को “नज़र” बिछाए बैठे हो।
Kumar kalhans