” मुठ्ठी भर जमीं “
“मुठ्ठी भर जमीं”
==================
मुठ्ठी बांधे आया था जहाँ में
फैला कर मांगता रहा जिंदगी भर
पकड़ने की हरदम कोशिश में
भागता रहा जिंदगी भर
जो मेरा नहीं था इस जहाँ में
उस के लिए तरसता रहा जिंदगी भर !
क्या लेकर आया था इस जहाँ में
ढूंढता रहा जिंदगी भर जिसे पाने के लिए
भटकता रहा कभी रोटी की भूख में
ऐ जिंदगी कभी आशियाना बनाने के लिए
लगा रहा जिंदगी भर खुद को दिखाने में
काफी नहीं था मुठ्ठी भर जमीं दफनाने के लिए !
मंजिलें अहम की खड़ी करते रहे बाजार में
बहुत कुछ खरीदा हाट में पर हाथ खाली चले
किसी को कुछ समझा नहीं अपने अहम में
भागते रहे महर के लिए ना कभी खुद से मिले
ना थके ना रुके भागते हम रहे पाने की चाह में
जेब हमने बनाए जेहन में बहुत मगर हाथ खाली चले!
समझा नहीं उन्हें जिनके दिन कटे लाचारी में
मैं ही मैं हूं इस मुगतलाते में हम जीते रहे
हरदम लगा रहा मैं,मैं की पाई-पाई जोड़ने में
जिंदगी का हाला कुछ इस तरह हम पीते रहे
कहां मयस्सर हुआ हर मुकाम इस जमाने में
यह जानकर भी हम जिंदगी भर भटकते रहे !
गुजर गई उम्र बहुतों की मैं मय के मयखाने में
डूबे सभी मैं मय के सागर में पार उरने के लिए
हर कोई ठहर के रह गया इस भवर के जीवन में
माया-मोह, तृष्णा, ईर्ष्या, भोग विलास लिए
भ्रमित मानव विमूढ हुआ मृगतृष्णा के स्पन्दन में
जग सारा ही घूम रहा भवसागर पार उतरने के लिए!
भुला बैठे हैं हम उन्हें है जो जगत के सार में
तरणि जो पार लगाएं मांझी बनके खेवनहार
एक मात्र है मारग उनका निज स्वारथ के त्याग में
प्रेम भक्ति बस मुदित हुए जग के पालनहार
मैं की माया मिल जाओगे एक मुठ्ठी भर मिट्टी में
जग के भवसागर से पार लगाएं जग के तारणहार!
***** सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी)*****