मुझे मरने की वजह दो
मेरा बचपन भी अजीब गुज़रा शुरू के चार वर्ष तो ऐसे बिते जहां मां का सानिध्य प्राप्त हुआ मुझे आज भी भलिभाती याद है मां गेहूं पीसने के क्रम में भी वो अपनी पैर फैला देती फिर क्या था मेरा शयनयान तैयार हो जाता मेरा शर उनके पैरों के हिलने पर स्वर्ग की अनुभूति करवाता मैं बताता चलूं मां की एक देवरानी भी थीं जिन्हें हम सब भाई-बहन ईया कह कर बुलाते थे उनके भी पांच बच्चे जो हम सभी भाई बहनों से बरे थे, पांच वर्ष के बाद बाबु जी हमलोगो को अपने साथ लिवा गये परन्तु मेरा एक भाई और एक बहन ईया के पास रह गई थी, दो भाई एक बहन के साथ मैं पिता के साथ मज़े में था स्कूल के नाम पे मैं पहले से ही डरा सा रहता था लेकिन दिदी की कृपा कहुं मुझे पढ़ना लिखना आया इधर मेरी दिदी और बरे भाई की हालत बद से बद्तर होती जा रही थी ईया ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया मेरे ताऊ ईया के इशारों पर ही नाचने वाले थे इन बातों से अनजान मेरे बाबूजी समय से गांव पैसा भेजते रहते थे मैं सातवीं कक्षा में आ गया था जहां हमलोग रहते थे उल्फ़ा वालों ने तंग करना शुरू किया, अपहरण तक कि घटनाएं आम होने लगी बाबूजी ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हम लोगों को वापस गांव भेज दिया,भैया को पाया पुरे दिन भैंस चराते या घांस लाने दियारा चले जाते थे, उम्र से ज्यादा बोझा ढोने की आदतों ने उन्हें लम्बा ही नहीं होने दिया। दुसरी ओर दिदियो की हालत घर में काम करने वाली दासियों की तरह हो गई, मां केवल कहने के लिए बड़ी थी चलती तो ईया की थी क्योंकि वही मालकिन थी। घर के हालात ऐसे थे कि मैं छोटी मोटी चोरियां करने लगा पैसे के साथ साथ किसी का लौकी, कोहरा, गेहूं , मिर्ची चुराने तक कि नौबत आ गई । खाना के नाम पे मां का जीवन बदतर था सबों की बची हुई थाली से पेट भर लेने कि आदतों ने उन्हें कई बिमारियों का शिकार बनाया फिर भी उनके दिल में रत्ती भर भी ग़म नहीं रहा शायद इस इंतजार में थी कभी तो दिन बदलेगा जैसे तैसे हमलोगो ने मैट्रिक की परीक्षा पास की घर की हालात बिगड़ते देख हमने टिवशन पढ़ाना शुरू किया हालात कुछ अच्छे हुए तो हमने मां को बोला हम चूल्हा चौका अलग कर लेंगे पर घर नहीं बदल पाया ताऊजी ईया के इशारे पर मां को खरी खोटी सुनाया ही करते थे पानी तो सर से बाहर तब जाने लगी जब भद्दी गालिओ के साथ वे मां को मारने आते इसी बीच हम लोगों ने इण्टर की परीक्षा पास कि भईया का हिम्मत ज़बाब दे गया कमाने के नाम पर दिल्ली चले गए। उधर बाबू जी ७ साल बाद घर लौटें जब हमारी कैरियर खत्म हो गई थी। वो यक्ष्मा और चिनिया रोग से पीड़ित थे उनके इलाज को लेकर मुझे शहर आना पड़ा अब कमाई थी १६ घंटे टिवशन के बाद १८०० रुपए बाबू जी का ईलाज खर्च मुश्किल से जुटा पाता था।दुसरी तरफ मां अस्थमा से पीड़ित तो थी ही उन्हें यूटेरस में समस्या आने लगी उनका भी आपरेशन इन परा जैसे तैसे उनका आपरेशन हुआ वो ठीक भी हो गई लेकिन कहते हैं ना ज़िन्दगी का जैसे ही एक ईनतिहान खत्म होता है दुसरा शुरू हो जाता है, मां की हालात दुबारा से ख़राब होने लगी बाबूजी का ९महीने इलाज़ के बाद भले चंगे थे, लेकिन मां की हालात ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी तब तक मुझे मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव की नौकरी एक दोस्त की सिफारिश पर मिल गई दवा की सुविधा ने मुझे थोड़ी राहत दी कई महीनों बाद भी जब मां ठीक नहीं हुई तो मुझे शक होने लगा आखिर उन्हें हुआ क्या है मैं गांव वालों से राय लेकर एक नामी गिरामी चिकित्सक के पास आया देखते ही उन्होंने पूछा अगर मैं कुछ कहूं तो ग़ौर से सुनना मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई उन्होंने जो कहां तुम्हारी मां कैंसर से पीड़ित हैं इन्हें महावीर कैंसर संस्थान ले जाएं मुझे तो जैसे काटो तो खून नहीं मैं घर पर किसी को कुछ नहीं बताया क्यूं की मै जानता था घर वाले मां से दूरी बना लेंगे उनको भी शक हो जाएगा, मैं चुपचाप इलाज़ करवाने लगा, चिकित्सक ने कहा कि बस २से ढाई महीने तुम्हारे पास बचें है सेवा करो सोचा ईश्वर ने इन्हें ही क्यूं ? मर तो मैं उसी दिन गया था जिस दिन उन्हें बिस्तर पर चौबिसों घण्टे असहनीय दर्द से करवटें बदलते पाया आठों पहर दर्द की चित्कार ने मेरे कान को बार बार ये कहकर मुझे दुत्कार दिया ये तु कैसा अभागा बेटा है जो मां की पीरा को नहीं हर सकता जिसने सारी जीवन तुम्हारे परवरिश में कूरबान कर दी और एक दिन ऐसा भी आया जब मेरी मां इस नारकिए ज़िन्दगी से तौबा करते हुए पता नहीं कब काल के गाल में समां गई,तब से आज तक मैं वजह ढूंढ रहा हूं कि वो ही क्यूं मैं क्यूं नही मेरे मालिक मुझे वजह दे……………………. अश्रु पूरित नयनों से प्रस्तुत संस्मरण मेरी मां के चरणों में समर्पित :-सुशील कुमार सिंह “प्रभात”