मुझे पुरूष नही बनना है….
कोई बताये क्या कमी है मेरे स्त्री होने में
मैं खुश हूँ स्त्री का अस्तित्व स्वीकारने में ,
सृष्टि की सबसे सुंदर कृति सोने सी शुद्ध
क्यों बनूँ मैं राम – कृष्ण और बुद्ध ?
क्या ये बिना स्त्री के पूर्ण थे
महान होकर भी खुद में संपूर्ण थे ?
अगर सीता न करती इतना त्याग महान
तो प्रभु प्रभु न होकर कहलाते इंसान ,
होते ना राधा के निश्छल प्रेम के नाते
कृष्ण हमेशा अकेले ही पूजे जाते ,
यदि यशोधरा सिर्फ सोचती अपना
सिधार्थ से बुद्ध बनना होता बस सपना ,
हर महान पुरूष की महानता में
सदियों से स्त्रियाँ खड़ी रही समानता में ,
अगर हर स्त्री पुरूष ही बन जायेगी
तो इनको संकट से कौन बचायेगी ?
कैसे होगी उत्पत्ति कैसे होगा सृजन तब
सारी ही स्त्रियाँ बन जायेंगीं पुरूष जब ?
क्यों मैं सोचूँ की मैं पुरूष बनूँ
बिना सिर – पैर के सपने बूनूँ ,
मुझे कभी भी पुरूष नही बनना है
मैं खुद में समर्थ हूँ मुझे स्त्री ही रहना है ,
मैं तो हौसला हूँ संबल हूँ ताकत हूँ इनकी
माँ – बहन – पत्नी – बेटी हूँ जिनकी ,
मैं स्त्री थी स्त्री हूँ और स्त्री ही रहूँगीं
सबमें प्रेम – प्यार – दुलार – ही भरूँगीं ,
मेरे इसी रूप को स्वीकारना होगा
ये बात हर किसी को मानना होगा ,
फिर न कहना की स्त्री हो तुम रहने दो
अरे ! छोड़ो भी स्त्री है इसको सहने दो ,
स्त्री होकर हद से ज्यादा सह सकती हूँ
चुप रहकर भी सब कुछ कह सकती हूँ ,
हर परिस्थितियों में डट कर अड़े रहना है
कंधे से कंधा मिला साथ खड़े रहना है ,
इसिलिए मुझे पुरूष नही बनना है
विधाता की श्रेष्ठ रचना ही बने रहना है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 09/09/2020 )