मुख का कौर।
कोरोना-रूप विकट,विकराल
घूमता निर्भय होकर काल।
गया है विश्व रोग से काँप
जिन्दगी मौन, मुखर कंकाल।
कोकिला कैसे छेड़े राग?
झुलसते पात, सूखती डाल।
रोग ने छीना मुख का कौर
न जाने कबतक खाली थाल।
आदमी हुआ घरों में कैद
बेड़ियाँ निज पैरों में डाल।
जीतना है ली हमने ठान
मौत का काटेंगे हर जाल।
वाटिका, झूम उठेगा बाग
डाल पर होंगे बौर, रसाल।
अनिल मिश्र प्रहरी।