*मुखौटों पीछे छिपे अलग चेहरे*
मुखौटों पीछे छिपे अलग चेहरे
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बात बताऊँ पते की सुन लो जरा,
मुखौटों से मुखड़ें अलग है जरा।
उभरती लेखिका उमर बाइस की,
कहानी,कविता लिखती थी जरा।
रिश्तेदारी में व्यंगकार उन्हें मिला,
उम्र मे तिगुना था बासठ का जरा।
एक रोज दफ्तर मे था बुलाया उसे,
कविता का मुखड़ा सुना तो जरा।
भरी डायरी थमा दी झट हाथों में,
हर्ष से झूम उठी उस पल वो जरा।
अंकल अंकल कहती मुस्कराई,
अंकल सुनकर झटपटाया वो जरा।
अंकल छोड़ों मुझे तुम दोस्त कहो,
रिश्तों में पीछे रह जाओगी जरा।
बात करते हैँ आगे सुनो ध्यान से,
कभी आओ अकेले कहीं पै जरा।
डरते डरते पहुंची सहमी घबराई,
हाथ हाथों में ले वो यूँ बोला जरा।
मेरी बांहों में तू झट चली आओ,
फर्श से अर्श पर चढ़ा दूँगा जरा।
बात सुनकर सारी जमीं हिल गई,
आँखों मे अंधेरा था छाया जरा।
हमें ऐसी प्रसिद्धि न चाहिए कभी,
हिम्मतकर दो शब्द वो बोली जरा।
भाग आई वो अपनी आन लिये,
स्वप्न कविताई के छोड़ आई जरा।
मनसीरत ने सुनाई खरी खोटियां
भागिये पास नजर न आना जरा।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैंथल)