मुखौटा
खुद में ही एक,
पहेली सा हो गया हूँ,
तुम जैसा समझते हो,
वैसा ही हो गया हूँ…
अनुरूप होते होते,
कितने रूप बने मेरे,
कैसे बताऊँ कितना,
अब कुरूप हो गया हूँ…
दुनिया मे स्वांग की,
बड़ी बहुत चौहद्दी है,
अनर्गल अलंकरणों से,
अब मनहूस हो गया हूँ…
मै जो हूँ, वही रहूँ ,
प्रतिबद्ध था कभी,
छद्म उजालों की यहाँ,
चकाचौंध में खो गया हूँ ….
समय के फेर ने भर दिया,
मुखौटों से मेरा चेहरा,
रोज उकेरते,खरोंचते,
अब घायल हो गया हूँ ….
जो जैसा है वैसा ही,
भला स्वीकार्य क्यों नहीं??
सूरतों के इंद्रजाल मे,
फंस कर ही रह गया हूँ….
©विवेक’वारिद’ *