मुखिया चुनाव
मुखिया चुनाव
हमारे यहां मुखिया का चुनाव बहुत आम चुनाव है। अगर एक बार कोई मुखिया बन जाए तो इसके बेटे के बेटे तक भी मुखिया का शासन चलाते हैं। अगर चुनाव जीते तो एश ऐसे में रहो और हारो तो भी लोग उन्हें मुखिया कह कर ही बुलाते हैं। इसी सोच में हमारे गांव के दादाजी ने चुनाव लड़ा। हमारे और उनके घर में आना जाना लगा रहता था। एक तरह से उन्हें पड़ोसी भी कह सकते हैं। हमारे गांव से 4 लोग चुनाव में खड़े हुए थे आपस में बड़ी टक्कर थी। इसमें हमारे दादाजी भी खड़े हुए थे जिसका पहले वर्णन किया हूं। लड़ने वाले प्रत्याशी किसी को भोज की किसी को नशीली वस्तुओ की लालच दे रहे थे। जब भी लोग उनसे मिलते झूठ मुठ का वादा करते । कोई भी नहीं कह सकता था कि इन चारों में से कौन जीतेगा। उस वक्त मुखिया के चुनाव ऐसा था कि लोग जमीन जायदाद बेचकर भी चुनाव लड़ते थे। अगर नसीब अच्छा हुआ तो जीवन भर मौज करते । यही तो शायद परंपरा थी। चुनाव से पहले दादा जी ने लोगों के बीच कपड़े और ₹200 भी बटवा दिए। शाम में देखो तो लोग उनके दरवाजे पर बैठकर हुक्का और नशीली वस्तुओं का सेवन करते। लगता है चुनाव के वक्त ही सभी बुजुर्गों नौजवानों का मौज रहता है। प्रत्याशी समझते हैं कि यही तो उनका वोट है जो खा पी रहे हैं। वे यह भी नहीं समझते है कि जो यहां पर खा पी रहे हैं कल दूसरे प्रत्याशी के यहां भोज खाकर आए हैं या जाएंगे । पता नहीं जानते हुए भी लोग यही परंपरा चलाते हैं। कुछ लोग तो मुखिया को ही बेवकूफ बनाते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ था कि दादा जी के साथ हैं किसी से झगड़ा हो गया । हुआ यूं कि उस आदमी जिसका नाम महेश था दादाजी ने उसे कुछ रुपए रिश्वत के तौर पर दिए थे। महेश ने उनसे वादा किया था कि वे चुनाव सौ फीसद जीत जाएंगे। असल में हमारे दादा जी चुनाव हार चुके थे। अगर महेश से रुपए की बात हुई थी तो एक या दो वोट से हारते तो चलता लेकिन यहां कुल में से चौथे नंबर पर आए थे। शायद यह लड़ाई आगे बहुत कुछ करने वाली थी। महेश से गांव के लोग डरते भी थे, महेश के पिता जी नहीं थे, सिर्फ उनकी मां जीवित थी। मां बूढ़ी हो चुकी थी इसलिए कोई काम भी नहीं कर सकती थी। महेश लगभग कामचोर था। वह चुनाव जैसा ही मौका ढूंढता था ताकि घर का खर्चा चल सके। जिस दिन महेश की दादा से लड़ाई हुई थी उस दिन वह नशे में था इसलिए वह कुछ से कुछ बोलता चला गया। दादाजी नहीं चाहते थे कि यह घटना गांव वालों को पता चले। रिश्वत की बात हुई थी, लोगों को पता चलता तो ताना मारते देखो रिश्वत देकर चुनाव लड़ता है। अंदर से सब ऐसे ही होते हैं पर लोगों को बदनाम करने की आदत होती है। लेकिन ऐसा होने वाला था नहीं। जहां लड़ाई होगी वहां भीड़ तो होगी ही। जो लोग चुनाव से पहले दादाजी की पैर तक छूते थे आज वह उन्हीं के मुंह पर चिल्ला रहे थे देखो देखो हाय राम कैसा है देश खोर है इन्हीं की वजह से जिसका विकास नहीं होता। दादा जी को बहुत गुस्सा आ रहा था। एक तो चुनाव हारे थे ऊपर से महेश ने गद्दारी की थी और उन्हीं के लोग उनके मुंह पर बोल रहे थे । चुनाव हारने से गुस्सा नहीं आ रहा था बल्कि हुआ यूं था कि पंचायत भवन जहां लोग वोट डालने जाते हैं वहां पर दादाजी लोगों से पहले पहुंच गए थे। और लोगों को 100 100 रुपए भी दे रहे थे आप हमें वोट दीजिए। दूसरे प्रत्याशी ने यह देख कर लोगों को ₹200 देने लगा फिर दादाजी ने महेश को बुलाया और कहा कि जाओ उससे लड़ाई लड़ो और बेइज्जत करो ताकि लोग उन्हें वोट ना दें हमने तुम्हें रुपया दिया है। महेश ने कानाफूसी की कि हमें और रुपए देना पड़ेगा। इस पर दादाजी मान गया और घर चले आए। महेश बड़ा चलाक था कुछ ना करके वापस घर आ गया। आदमी की वजह से लड़ाई हुई थी। अब लड़ाई हुए 6 साल हो गए। गांव के बच्चे दादा जी को मुखिया जी मुखिया जी कहते रहते हैं इससे दादाजी को गर्व होता है कि हम चुनाव हार कर भी मुखिया है फिर खुद को मुखिया समझ कर मुझ पर ताव देते हैं। उधर महेश यह सब रिश्वत वाला धंधा छोड़कर कोई काम पर लग गया। इसके बाद दादाजी ने कभी चुनाव का नाम नहीं लिया। शायद उन्हें पता चल गया था कि चुनाव बहुत बुरा नशा है।